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सिखों के दस गुरू

क्रमांक नाम जन्मतिथि गुरु बनने की तिथि निर्वाण तिथि आयु
1 गुरु नानक देव 15 अप्रैल 1469 20 अगस्त 1507 22 सितम्बर 1539 69
2 गुरु अंगद देव 31 मार्च 1504 7 सितम्बर 1539 29 मार्च 1552 48
3 गुरु अमर दास 5 मई 1479 26 मार्च 1552 1 सितम्बर 1574 95
4 गुरु राम दास 24 सितम्बर 1534 1 सितम्बर 1574 1 सितम्बर 1581 46
5 गुरु अर्जुन देव 15 अप्रैल 1563 1 सितम्बर 1581 30 मई 1606 43
6 गुरु हरगोबिन्द 19 जून 1595 25 मई 1606 28 फरवरी 1644 48
7 गुरु हर राय 16 जनवरी 1630 3 मार्च 1644 6 अक्टूबर 1661 31
8 गुरु हर किशन 7 जुलाई 1656 6 अक्टूबर 1661 30 मार्च 1664 7
9 गुरु तेग बहादुर 1 अप्रैल 1621 20 मार्च 1665 11 नवंबर 1675 54
10 गुरु गोबिंद सिंह 22 दिसम्बर 1666 11 नवंबर 1675 7 अक्टूबर 1708 41

 दसों पातशाहियों की आत्मिक ज्योत धन धन श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी

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सिख गुरु सिख पन्थ के आध्यात्मिक गुरु हैं, जिन्होंने लगभग ढाई शताब्दियों के दौरान इस पन्थ की स्थापना की, जो कि 1469 में आरम्भ हुआ था।[1] वर्ष 1469 सिख पन्थ के संस्थापक, गुरु नानक जी के जन्म का प्रतीक है। 1708 तक, उन्हें नौ अन्य गुरु उत्तराधिकारी हुए थे, आखिरकार गुरुशाही को दसवें गुरु द्वारा पवित्र सिख ग्रन्थ, गुरु ग्रन्थ साहिब में पारित किया गया था, जिसे अब सिख पन्थ के अनुयायियों द्वारा जीवित गुरु माना जाता है।

Sources https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%96%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%A6%E0%A4%B8_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%82

1. गुरु नानक


नानक (पंजाबी:ਨਾਨਕ) (कार्तिक पूर्णिमा 1469 – 22 सितंबर 1539) सिखों के प्रथम (आदि )गुरु हैं।[1] इनके अनुयायी इन्हें नानक, नानक देव जी, बाबा नानक और नानकशाह नामों से सम्बोधित करते हैं। नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबन्धु - सभी के गुण समेटे हुए थे।

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2. गुरु अंगद देव


अंगद देव या गुरू अंगद देव सिखो के दूसरे गुरू थे। गुरू अंगद देव महाराज जी का सृजनात्मक व्यक्तित्व था। उनमें ऐसी अध्यात्मिक क्रियाशीलता थी जिससे पहले वे एक सच्चे सिख बनें और फिर एक महान गुरु। गुरू अंगद साहिब जी (भाई लहना जी) का जन्म हरीके नामक गाँव में, जो कि फिरोजपुर, पंजाब में आता है, वैसाख वदी १, (पंचम्‌ वैसाख) सम्वत १५६१ (१० अप्रैल १५०४) को हुआ था। गुरुजी एक व्यापारी श्री फेरू जी के पुत्र थे। उनकी माता जी का नाम माता रामो देवी जी था। बाबा नारायण दास त्रेहन उनके दादा जी थे, जिनका पैतृक निवास मत्ते-दी-सराय, जो मुख्तसर के समीप है, में था। फेरू जी बाद में इसी स्थान पर आकर निवास करने लगे।
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3. गुरु अमर दास


सवायीये महले तीजे के भले अमरदास गुण तेरे, तेरी उपमा तोहि बनि आवै॥ १॥ पृष्ठ १३९६
गुरू अमर दास जी सिख पंथ के एक महान प्रचारक थे। जिन्होंने गुरू नानक जी महाराज के जीवन दर्शन को व उनके द्वारा स्थापित धार्मिक विचाराधारा को आगे बढाया। ÷तृतीय नानक' गुरू अमर दास जी का जन्म बसर्के गिलां जो कि अमृतसर में स्थित है, में वैसाख सुदी १४वीं (९वीं जेठ), सम्वत १५३६ को हुआ था। उनके पिता तेजभान भल्ला जी एवं माता बख्त जी एक सनातनी हिन्दू थे और हर वर्ष गंगा जी के दर्शन के लिए हरिद्वार जाया करते थे। गुरू अमर दास जी का विवाह माता मंसा देवी जी से हुआ था। उनकी चार संतानें थी। जिनमें दो पुत्रिायां- बीबी दानी जी एवं बीबी भानी जी थी। बीबी भानी जी का विवाह गुरू रामदास साहिब जी से हुआ था। उनके दो पुत्रा- मोहन जी एवं मोहरी जी थे।
एक बार गुरू अमरदास साहिब जी ने बीबी अमरो जी (गुरू अंगद साहिब की पुत्राी) से गुरू नानक साहिब के शबद् सुने। वे इससे इतने प्रभावित हुए कि गुरू अंगद साहिब से मिलने के लिए खडूर साहिब गये। गुरू अंगददेव साहिब जी की शिक्षा के प्रभाव में आकर गुरू अमर दास साहिब ने उन्हें अपना गुरू बना लिया और वो खडूर साहिब में ही रहने लगे। वे नित्य सुबह जल्दी उठ जाते व गुरू अंगद देव जी के स्नान के लिए ब्यास नदी से जल लाते। और गुरू के लंगर लिए जंगल से लकड़ियां काट कर लाते।
गुरू अंगद साहिब ने गुरू अमरदास साहिब को ÷तृतीय नानक' के रूप में मार्च १५५२ को ७३ वर्ष की आयु में स्थापित किया। गुरू अमरदास साहिब जी की भक्ति एवं सेवा गुरू अंगद साहिब जी की शिक्षा का परिणाम था। गुरू साहिब ने अपने कार्यों का केन्द्र एक नए स्थान गोइन्दवाल को बनाया। यही बाद में एक बड़े शहर के रूप में प्रसिद्ध हुआ। यहां उन्होंने संगत की रचना की और बड़े ही सुनियोजित ढंग से सिख विचारधारा का प्रसार किया। उन्होंने यहां सिख संगत को प्रचार के लिए सुसंगठित किया। विचार के प्रसार के लिए २२ धार्मिक केन्द्रों- ÷मंजियां' की स्थापना की। हर एक केन्द्र या मंजी पर एक प्रचारक प्रभारी को नियुक्त किया। जिसमें एक रहतवान सिख अपने दायित्वों के अनुसार धर्म का प्रचार करता था। गुरु अमरदास जी ने स्वयं एवं सिख प्रचारकों को भारत के विभिन्न भागों में भेजकर सिख पंथ का प्रचार किया।
उन्होंने ÷गुरू का लंगर' की प्रथा को स्थापित किया और हर श्रद्धालु के लिए ÷÷पहले पंगत फिर संगत को अनिवार्य बनाया। एक बार अकबर गुरू साहिब को देखने आये तो उन्हें भी मोटे अनाज से बना लंगर छक कर ही फिर गुरू साहिब का साक्षात्कार करने का मौका मिला।
गुरु अमरदास जी ने सतीप्रथा का प्रबल विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह को बढावा दिया और महिलाओं को पर्दा प्रथा त्यागने के लिए कहा। उन्होंने जन्म, मृत्यू एवं विवाह उत्सवों के लिए सामाजिक रूप से प्रासांगिक जीवन दर्शन को समाज के समक्ष रखा। इस प्रकार उन्होंने सामाजिक धरातल पर एक राष्ट्रवादी व आध्यात्मिक आन्दोलन को उकेरा। इस विचारधारा के सामने मुस्लिम कट्टपंथियों का जेहादी फलसफा था। उन्हें इन तत्वों से विरोध भी झेलना पड़ा। उन्होंने संगत के लिए तीन प्रकार के सामाजिक व सांस्कृतिक मिलन समारोह की संरचना की। ये तीन समारोह थे-दीवाली, वैसाखी एवं माघी।
गुरू अमरदास साहिब जी ने गोइन्दवाल साहिब में बाउली का निर्माण किया जिसमें ८४ सीढियां थी एवं सिख इतिहास में पहली बार गोइन्दवाल साहिब को सिख श्रद्धालू केन्द्र बनाया। उन्होने गुरू नानक साहिब एवं गुरू अंगद साहिब जी के शबदों को सुरक्षित रूप में संरक्षित किया। उन्होने ८६९ शबदों की रचना की। उनकी बाणी में आनन्द साहिब जैसी रचना भी है। गुरू अरजन देव साहिब ने इन सभी शबदों को गुरू ग्रन्थ साहिब में अंकित किया।
गुरू साहिब ने अपने किसी भी पुत्रा को सिख गुरू बनने के लिए योग्य नहीं समझा, इसलिए उन्होंने अपने दामाद गुरू रामदास साहिब को गुरुपद प्रदान किया। यह एक प्रयोग धर्मी निर्णय था। बीबी भानी जी एवं गुरू रामदास साहिब में सिख सिद्धान्तों को समझने एवं सेवा की सच्ची श्रद्धा थी और वो इसके पूर्णतः काबिल थे। यह प्रथा यह बताती है कि गुरूपद किसी को भी दिया जा सकता है। गुरू अमरदास साहिब को देहांत ९५ वर्ष की आयु में भादों सुदी १४ (दूसरा आसु) सम्वत १६३१ (सितम्बर १, १५७४) को गुरू रामदास साहिब जी को गुरूपद सौंपने के पश्चात गाईन्दवाल साहिब, जो कि अमृतसर के निकट है, में हुआ था।

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4. गुरु राम दास


राम दास या गुरू राम दास (पंजाबी: ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਰਾਮ ਦਾਸ ਜੀ), सिखों के गुरु थे और उन्हें गुरु की उपाधि 9 सितंबर 1574 को दी गयी थी। उन दिनों जब विदेशी आक्रमणकारी एक शहर के बाद दूसरा शहर तबाह कर रहे थे, तब 'चौथे नानक' गुरू राम दास जी महाराज ने एक पवित्र शहर रामसर, जो कि अब अमृतसर के नाम से जाना जाता है, का निर्माण किया।
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5. गुरु अर्जुन देव


अर्जुन देव या गुरु अर्जुन देव (15 अप्रेल 1563 – 30 मई 1606[1]) सिखों के 5वें गुरु थे। गुरु अर्जुन देव जी शहीदों के सरताज एवं शान्तिपुंज हैं। आध्यात्मिक जगत में गुरु जी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहा जाता है। गुरुग्रन्थ साहिब में तीस रागों में गुरु जी की वाणी संकलित है। गणना की दृष्टि से श्री गुरुग्रंथ साहिब में सर्वाधिक वाणी पंचम गुरु की ही है। ग्रन्थ साहिब का सम्पादन गुरु अर्जुन देव जी ने भाई गुरदास की सहायता से 1604 में किया। ग्रन्थ साहिब की सम्पादन कला अद्वितीय है, जिसमें गुरु जी की विद्वत्ता झलकती है। उन्होंने रागों के आधार पर ग्रन्थ साहिब में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रन्थों में दुर्लभ है। यह उनकी सूझबूझ का ही प्रमाण है कि ग्रन्थ साहिब में 36 महान वाणीकारों की वाणियाँ बिना किसी भेदभाव के संकलित हुई।
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6. गुरु हरगोबिन्द


गुरू हरगोबिन्द सिखों के छठें गुरू थे। साहिब की सिक्ख इतिहास में गुरु अर्जुन देव जी के सुपुत्र गुरु हरगोबिन्द साहिब की दल-भंजन योद्धा कहकर प्रशंसा की गई है। गुरु हरगोबिन्द साहिब की शिक्षा दीक्षा महान विद्वान् भाई गुरदास की देख-रेख में हुई। गुरु जी को बराबर बाबा बुड्डाजी का भी आशीर्वाद प्राप्त रहा। छठे गुरु ने सिक्ख धर्म, संस्कृति एवं इसकी आचार-संहिता में अनेक ऐसे परिवर्तनों को अपनी आंखों से देखा जिनके कारण सिक्खी का महान बूटा अपनी जडे मजबूत कर रहा था। विरासत के इस महान पौधे को गुरु हरगोबिन्द साहिब ने अपनी दिव्य-दृष्टि से सुरक्षा प्रदान की तथा उसे फलने-फूलने का अवसर भी दिया। अपने पिता श्री गुरु अर्जुन देव की शहीदी के आदर्श को उन्होंने न केवल अपने जीवन का उद्देश्य माना, बल्कि उनके द्वारा जो महान कार्य प्रारम्भ किए गए थे, उन्हें सफलता पूर्वक सम्पूर्ण करने के लिए आजीवन अपनी प्रतिबद्धता भी दिखलाई।
बदलते हुए हालातों के मुताबिक गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने शस्त्र एवं शास्त्र की शिक्षा भी ग्रहण की। वह महान योद्धा भी थे। विभिन्न प्रकार के शस्त्र चलाने का उन्हें अद्भुत अभ्यास था। गुरु हरगोबिन्दसाहिब का चिन्तन भी क्रान्तिकारी था। वह चाहते थे कि सिख कौम शान्ति, भक्ति एवं धर्म के साथ-साथ अत्याचार एवं जुल्म का मुकाबला करने के लिए भी सशक्त बने। वह अध्यात्म चिन्तन को दर्शन की नई भंगिमाओं से जोडना चाहते थे। गुरु- गद्दी संभालते ही उन्होंने मीरी एवं पीरी की दो तलवारें ग्रहण की। मीरी और पीरी की दोनों तलवारें उन्हें बाबा बुड्डाजीने पहनाई। यहीं से सिख इतिहास एक नया मोड लेता है। गुरु हरगोबिन्दसाहिब मीरी-पीरी के संकल्प के साथ सिख-दर्शन की चेतना को नए अध्यात्म दर्शन के साथ जोड देते हैं। इस प्रक्रिया में राजनीति और धर्म एक दूसरे के पूरक बने। गुरु जी की प्रेरणा से श्री अकाल तख्त साहिब का भी भव्य अस्तित्व निर्मित हुआ। देश के विभिन्न भागों की संगत ने गुरु जी को भेंट स्वरूप शस्त्र एवं घोडे देने प्रारम्भ किए। अकाल तख्त पर कवि और ढाडियोंने गुरु-यश व वीर योद्धाओं की गाथाएं गानी प्रारम्भ की। लोगों में मुगल सल्तनत के प्रति विद्रोह जागृत होने लगा। गुरु हरगोबिन्दसाहिब नानक राज स्थापित करने में सफलता की ओर बढने लगे। जहांगीर ने गुरु हरगोबिन्दसाहिब को ग्वालियर के किले में बन्दी बना लिया। इस किले में और भी कई राजा, जो मुगल सल्तनत के विरोधी थे, पहले से ही कारावास भोग रहे थे। गुरु हरगोबिन्दसाहिब लगभग तीन वर्ष ग्वालियर के किले में बन्दी रहे। महान सूफी फकीर मीयांमीर गुरु घर के श्रद्धालु थे। जहांगीर की पत्‍‌नी नूरजहांमीयांमीर की सेविका थी। इन लोगों ने भी जहांगीर को गुरु जी की महानता और प्रतिभा से परिचित करवाया। बाबा बुड्डा व भाई गुरदास ने भी गुरु साहिब को बन्दी बनाने का विरोध किया। जहांगीर ने केवल गुरु जी को ही ग्वालियर के किले से आजाद नहीं किया, बल्कि उन्हें यह स्वतन्त्रता भी दी कि वे 52राजाओं को भी अपने साथ लेकर जा सकते हैं। इसीलिए सिख इतिहास में गुरु जी को बन्दी छोड़ दाता कहा जाता है। ग्वालियर में इस घटना का साक्षी गुरुद्वारा दाता बन्दी छोड़ है। अपने जीवन मूल्यों पर दृढ रहते गुरु जी ने शाहजहां के साथ चार बार टक्कर ली। वे युद्ध के दौरान सदैव शान्त, अभय एवं अडोल रहते थे। उनके पास इतनी बडी सैन्य शक्ति थी कि मुगल सिपाही प्राय: भयभीत रहते थे। गुरु जी ने मुगल सेना को कई बार कड़ी पराजय दी। गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने अपने व्यक्तित्व और कृत्तित्वसे एक ऐसी अदम्य लहर पैदा की, जिसने आगे चलकर सिख संगत में भक्ति और शक्ति की नई चेतना पैदा की। गुरु जी ने अपनी सूझ-बूझ से गुरु घर के श्रद्धालुओं को सुगठित भी किया और सिख-समाज को नई दिशा भी प्रदान की। अकाल तख्त साहिब सिख समाज के लिए ऐसी सर्वोच्च संस्था के रूप में उभरा, जिसने भविष्य में सिख शक्ति को केन्द्रित किया तथा उसे अलग सामाजिक और ऐतिहासिक पहचान प्रदान की। इसका श्रेय गुरु हरगोबिन्दसाहिब को ही जाता है।
गुरु हरगोबिन्दसाहिब जी बहुत परोपकारी योद्धा थे। उनका जीवन दर्शन जन-साधारण के कल्याण से जुडा हुआ था। यही कारण है कि उनके समय में गुरमतिदर्शन राष्ट्र के कोने-कोने तक पहुंचा। श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के महान संदेश ने गुरु-परम्परा के उन कार्यो को भी प्रकाशमान बनाया जिसके कारण भविष्य में मानवता का महा कल्याण होने जा रहा था।
गुरु जी के इन अथक प्रयत्‍‌नों के कारण सिख परम्परा नया रूप भी ले रही थी तथा अपनी विरासत की गरिमा को पुन:नए सन्दर्भो में परिभाषित भी कर रही थी। गुरु हरगोबिन्दसाहिब की चिन्तन की दिशा को नए व्यावहारिक अर्थ दे रहे थे। वास्तव में यह उनकी आभा और शक्ति का प्रभाव था। गुरु जी के व्यक्तित्व और कृत्तित्वका गहरा प्रभाव पूरे परिवेश पर भी पडने लगा था। गुरु हरगोबिन्दसाहिब जी ने अपनी सारी शक्ति हरमन्दिरसाहिब व अकाल तख्त साहिब के आदर्श स्थापित करने में लगाई। गुरु हरगोबिन्दसाहिब प्राय: पंजाब से बाहर भी सिख धर्म के प्रचार हेतु अपने शिष्यों को भेजा करते थे।
गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने सिक्ख जीवन दर्शन को सम-सामयिक समस्याओं से केवल जोडा ही नहीं, बल्कि एक ऐसी जीवन दृष्टि का निर्माण भी किया जो गौरव पूर्ण समाधानों की संभावना को भी उजागर करता था। सिख लहर को प्रभावशाली बनाने में गुरु जी का अद्वितीय योगदान रहा।
गुरु जी कीरतपुर साहिब में ज्योति-जोत समाए। गुरुद्वारा पातालपुरीगुरु जी की याद में आज भी हजारों व्यक्तियों को शान्ति का संदेश देता है। भाई गुरुदास ने गुरु हरगोबिन्दसाहिब की गौरव गाथा का इन शब्दों में उल्लेख किया है: पंज पिआलेपंजपीर छटम्पीर बैठा गुर भारी, अर्जुन काया पलट के मूरत हरगोबिन्दसवारी,
चली पीढीसोढियांरूप दिखावनवारो-वारी,
दल भंजन गुर सूरमा वडयोद्धा बहु-परउपकारी॥ सिखों के दस गुरू हैं।

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7. गुरु हर राय

हर राय या गुरू हर राय (पंजाबी: ਗੁਰੂ ਹਰਿਰਾਇ) सिखों के सातवें गुरु थे। गुरू हरराय जी एक महान आध्यात्मिक व राष्ट्रवादी महापुरुष एवं एक योद्धा भी थे। उनका जन्म सन् १६३० ई० में कीरतपुर रोपड़ में हुआ था। गुरू हरगोविन्द साहिब जी ने मृत्यु से पहले, अपने पोते हरराय जी को १४ वर्ष की छोटी आयु में ३ मार्च १६४४ को 'सप्तम्‌ नानक' के रूप में घोषित किया था। गुरू हरराय साहिब जी, बाबा गुरदित्ता जी एवं माता निहाल कौर जी के पुत्र थे। गुरू हरराय साहिब जी का विवाह माता किशन कौर जी, जो कि अनूप शहर (बुलन्दशहर), उत्तर प्रदेश के श्री दया राम जी की पुत्री थी, हर सूदी ३, सम्वत १६९७ को हुआ। गुरू हरराय साहिब जी के दो पुत्र थे श्री रामराय जी और श्री हरकिशन साहिब जी (गुरू) थे।
गुरू हरराय साहिब जी का शांत व्यक्तित्व लोगों को प्रभावित करता था। गुरु हरराय साहिब जी ने अपने दादा गुरू हरगोविन्द साहिब जी के सिख योद्धाओं के दल को पुनर्गठित किया। उन्होंने सिख योद्धाओं में नवीन प्राण संचारित किए। वे एक आध्यात्मिक पुरुष होने के साथ-साथ एक राजनीतिज्ञ भी थे। अपने राष्ट्र केन्द्रित विचारों के कारण मुगल औरंगजेब को परेशानी हो रही थी। औरंगजेब का आरोप था कि गुरू हरराय साहिब जी ने दारा शिकोह (शाहजहां के सबसे बड़े पुत्र) की सहायता की है। दारा शिकोह संस्कृत भाषा के विद्वान थे। और भारतीय जीवन दर्शन उन्हें प्रभावित करने लगा था।
एक बार गुरू हरराय साहिब जी मालवा और दोआबा क्षेत्र से प्रवास करके लौट रहे थे, तो मोहम्मद यारबेग खान ने उनके काफिले पर अपने एक हजार सशस्त्र सैनिकों के साथ हमला बोल दिया। इस अचानक हुए आक्रमण का गुरू हरराय साहिब जी ने सिख योद्धाओं के साथ मिलकर बहुत ही दिलेरी एवं बहादुरी के साथ प्रत्युत्तर दिया। दुश्मन को जान व माल की भारी हानि हुई एवं वे युद्ध के मैदान से भाग निकले। आत्म सुरक्षा के लिए सशस्त्र आवश्यक थे, भले ही व्यक्तिगत जीवन में वे अहिंसा परमो धर्म के सिद्धान्त को अहम मानते हों। गुरू हरराय साहिब जी प्रायः सिख योद्धाओं को बहादुरी के पुरस्कारों से नवाजा करते थे।
गुरू हरराय साहिब जी ने कीरतपुर में एक आयुर्वेदिक जड़ी-बूटी दवाईयों का अस्पताल एवं अनसुधान केन्द्र की स्थापना भी की। एक बार दारा शिकोह किसी अनजानी बीमारी से ग्रस्त हुआ। हर प्रकार के सबसे बेहतर हकीमों से सलाह ली गयी। परन्तु किसी प्रकार कोई भी सुधार न आया। अन्त में गुरू साहिब की कृपा से उसका ईलाज हुआ। इस प्रकार दारा शिकोह को मौत के मुंह से बचा लिया गया।
गुरू हरराय साहिब ने लाहौर, सियालकोट, पठानकोट, साम्बा, रामगढ एवं जम्मू एवं कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रों का प्रवास भी किया। उन्होने ३६० मंजियों की स्थापना की। उन्होने भ्रष्ट 'मसन्द पद्धति' सुधारने हेतु सुथरेशाह, साहिबा, संगतिये, मिंया साहिब, भगत भगवान, भगत मल एवं जीत मल भगत जैसे पवित्र एवं आध्यात्मिक लोगों को मंजियों का प्रमुख नियुक्त किया।
गुरू हरराय साहिब ने अपने गुरूपद काल के दौरान बहुत सी कठिनाइयों का सामना किया। भ्रष्ट मसंद, धीरमल एवं मिनहास जैसों ने सिख पंथ के प्रसार में बाधाएं उत्पन्न की। शाहजहां की मृत्यु के बाद गैर मुस्लिमों के प्रति शासक औरंगजेब का रूख और कड़ा हो गया।
मुगल शासक औरंगजेब ने सत्ता संघर्ष की स्थितियों में, गुरू हरराय साहिब जी द्वारा की गई दारा शिकोह की मदद को राजनैतिक बहाना बनाया। उसने गुरू साहिब पर बेबुनियाद आरोप लगाये। उन्हें दिल्ली में पेश होने का हुक्म दिया गया। गुरू हरराय साहिब जी के बदले रामराय जी दिल्ली गये। उन्होंने धीरमल एवं मिनहास द्वारा सिख धर्म एवं गुरू घर के प्रति फैलायी गयी भ्रांतियों को स्पष्ट करने का प्रयास किया। रामराय जी ने मुगल दरबार में गुरबाणी की त्रुटिपूर्ण व्याख्या की। उस समय की राजनैतिक परिस्थितियों एवं गुरु मर्यादा की दृष्टि से यह सब निन्दनीय था।
जब गुरू हरराय साहिब जी को इस घटना के बारे में बताया गया तो उन्होने राम राय जी को तुरंत सिख पंथ से निष्कासित किया। राष्ट्र के स्वाभिमान व गुरुघर की परम्पराओं के विरुद्ध कार्य करने के कारण रामराय जी को यह कड़ा दण्ड दिया गया। इस घटना ने सिखों में देश के प्रति क्या कर्तव्य होने चाहिए, ऐसे भावों का संचार हुआ। सिख इस घटना के बाद गुरु घर की परम्पराओं के प्रति अुनशासित हो गए। इस प्रकार गुरू साहिब ने सिख धर्म के वास्तविक गुणों, जो कि गुरू ग्रन्थ साहिब जी में दर्ज हैं, गुरू नानक देव जी द्वारा बनाये गये किसी भी प्रकार के नियमों में फेरबदल करने वालों के लिए एक कड़ा कानून बना दिया।
अपने अन्तिम समय को नजदीक देखते हुए उन्होने अपने सबसे छोटे पुत्र गुरू हरकिशन जी को 'अष्टम्‌ नानक' के रूप में स्थापित किया। कार्तिक वदी ९ (पांचवीं कार्तिक), बिक्रम सम्वत १७१८, (६ अक्टूबर १६६१) में कीरतपुर साहिब में ज्योति जोत समा गये।

educratsweb.comस्वयं गुरु हरि राय की हस्तलीपि में लिखा हुआ मूल मंत्र

8. गुरु हर किशन


गुरू हर किशन जी सिखों के आठवें गुरू थे।
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9. गुरु तेग़ बहादुर


गुरु तेग बहादुर (ग्रेगोरी कैलेण्डर: 1 अप्रैल 1621 – 11 नवम्बर, 1675), (भारांग: 11 चैत्र 1543 - 20 कार्तिक 1597 ) सिखों के नवें गुरु थे जिन्होने प्रथम गुरु नानक द्वारा बताए गये मार्ग का अनुसरण करते रहे। उनके द्वारा रचित 115 पद्य गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित हैं। उन्होने काश्मीरी पंडितों तथा अन्य हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाने का विरोध किया। इस्लाम स्वीकार न करने के कारण 1675 में मुगल शासक औरंगज़ेब ने उन्हे इस्लाम स्वीकार करने को कहा कि पर गुरु साहब ने कहा सीस कटा सकते है केश नहीं। फिर उसने गुरुजी का सबके सामने उनका सिर कटवा दिया। गुरुद्वारा शीश गंज साहिब तथा गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उन स्थानों का स्मरण दिलाते हैं जहाँ गुरुजी की हत्या की गयी तथा जहाँ उनका अन्तिम संस्कार किया गया। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धान्त की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है।
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10. गुरु गोबिन्द सिंह


गुरु गोबिन्द सिंह (गुरु गोबिंद सिंह) (जन्म:पौष शुक्ल सप्तमी संवत् 1723 विक्रमी तदनुसार 22 दिसम्बर 1666- मृत्यु 7 अक्टूबर 1708 ) वे सिखों के दसवें गुरु थे। उनके पिता जी श्री गुरू तेग बहादुर जी की सहादत के उपरान्त 11 नवम्बर सन 1675 को 10 वे गुरू बने। वे एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन 1699 में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पंथ (पन्थ) की स्थापना की जो सिखों के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है।[1] आप ने इस दिन श्री आनन्दपुर साहिब जी में एक बहुत बड़े समेलन का आयोजन किया और वहाँ पर शामिल लोगो से [[५|5】】 सिरों की माँग की , 5 लोग आपको सर देने के लिए तैयार हुए जिन्हें अपने अमृत पिला कर पाँच प्यारो का नाम दिया तथा अपने खुद भी उन से अमृत पान किया और तभी से आपको कहा जाने लगा " वहो वहो गोबिन्द सिंह आपे गुरु आपे चला ". तभी से पूरे सिख जगत में वैशाखी का दिन बड़े चाव से मनाया जाता है.
गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रंथ (ग्रन्थ) गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया। बिचित्र नाटक अकाल उसतत , चण्डी दी वार उनकी आत्मकथा है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ (ग्रन्थ), गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है।
उन्होने जुलम और पापो का खत्म करने के लिए और गरीबो की रक्षा के लिए मुगलों के साथ 14 युद्ध लड़े। और उन्होंने सभी के सभी युद्धों में विजय प्राप्त की। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें 'सरबंसदानी' (पूरे परिवार का दानी ) भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले, आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं।
गुरु गोविन्द सिंह जहाँ विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिन्तक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रन्थों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।[2]
उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का सन्देश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन। वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है। educratsweb.com

Short Description

Guru Nanak

Date of Birth : 15 April 1469
Father : Mehta Kalu
Mother : Mata Tripta
Guruship on : --
Age at Death : 69,
Major Life Highlights : * Founded Sikhism * Spiritual revelations registered as 974 hymns in Guru Granth Sahib * Rejected the authority of the Vedas * Preached the new idea of God as (Supreme, Universal, All-powerful and truthful, Formless, Fearless, Without Hate, Self-existent, Ever-lasting creator of all things, The eternal and absolute truth) * Attacked the citadel of the Hindu caste system, promoting equality of all * Emphasized the equality of women *Rejected the path of renunciation; emphasized leading a householder's life * Condemned the theocracy of Mughal emperor Babar * Started the institution of Guru ka Langar * Undertook 4 major journeys, travelling far and wide (including visits to Haridwar, Varanasi, Tibet, Srinagar, Lahore, Mecca, Medina, Baghdad, Syria, Turkey, Kabul, Kandhar, etc.) * Died of natural causes

Guru Angad

Date of Birth : 31 March 1504
Father : Baba Pheru
Mother : Mata Ramo
Guruship on : 7 September 1539
Age at Death : 48,
Major Life Highlights : * Spiritual revelations registered as 63 Saloks (stanzas) in Guru Granth Sahib * Established new religious institutions to strengthen the base of Sikhism * Standardized and popularized the Gurumukhi Script* Opened many new schools * Started the tradition of Mall Akhara for physical as well as spiritual development * Popularized and expanded the institution of Guru ka Langar * Died of natural causes

Guru Amar Das

Date of Birth : 5 May 1479
Father : Tej Bhan Bhalla
Mother : Bakht Kaur
Guruship on : 26 March 1552
Age at Death : 95,
Major Life Highlights : * 869 verses including Anand Sahib in the Guru Granth Sahib * Established Manji & Piri system of religious missions for men and women respectively * Strengthened the Langar community kitchen system * Preached against the Hindu society's Sati system (burning alive of a wife at the pyre of her deceased husband), advocated widow-remarriage; Asked the women to discard "Purdah" (veil worn by Muslim women). * Asked Akbar to remove the toll-tax (pilgrim's tax) for non-Muslims while crossing Yamuna and Ganges Rivers * Died of natural causes

Guru Ram Das

Date of Birth : 24 September 1534
Father : Baba Hari Das
Mother : Mata Daya Vati
Guruship on : 1 September 1574
Age at Death : 46,
Major Life Highlights : * 638 hymns in 30 ragas in the Guru Granth Sahib, which include 246 Padei, 138 Saloks, 31 Ashtpadis and 8 Vars * Composed the four Lawans (stanzas) of the Anand Karaj, a distinct marriage code for Sikhs separate from the orthodox and traditional Hindu Vedi system* Laid the foundation stone of Chak Ramdas or Ramdas Pur, now called Amritsar * Strongly decried superstitions, caste system and pilgrimages *Died of natural causes

Guru Arjan

Date of Birth : 15 April 1563
Father : Rām Dās
Mother : Mata Bhani
Guruship on : 1 September 1581
Age at Death : 43,
Major Life Highlights : * Compiled the Guru Granth Sahib, and installed it at Sri Harmandir Sahib on Bhadon Sudi 1st Samvat 1661 (August/September 1604), A landmark event in Sikh history* Contributed about 2000 verses to the Guru Granth Sahib * Founded the town of Tarn Taran Sahib near Goindwal Sahib * Built a house for Lepers. * Was tortured and executed on the orders of the Mughal Emperor Jahangir * Hailed as the first martyr of Sikh religion, and as Shaheedan-de-Sartaj (The crown of martyrs)

Guru Har Gobind

Date of Birth : 19 June 1595
Father : Arjun Dēv
Mother : Mata Ganga
Guruship on : 25 May 1606
Age at Death : 48,
Major Life Highlights : * Instituted the practice of maintaining armed legion of Sikh warrior-saints * Waged wars against rulers Jahangir and Shah Jahan * Died of natural causes

Guru Har Rai

Date of Birth : 16 January 1630
Father : Baba Gurditta
Mother : Mata Nihal Kaur
Guruship on : 3 March 1644
Age at Death : 31,
Major Life Highlights : * Sheltered Dara Shikoh; persecuted by Aurangzeb who framed charges of anti-Islamic blasphemy against Guru Ji and Sikh verses of Guru Granth Sahib * Died of natural causes

Guru Har Krishan

Date of Birth : 7 July 1656
Father : Hari Rā'i
Mother : Mata Krishan Kaur
Guruship on : 6 October 1661
Age at Death : 7,
Major Life Highlights : * Forcibly summoned to Delhi (the imperial capital of Aurangzeb) under framed charges * Died of the age of 8 due to smallpox, which he contracted while healing the sick people during an epidemic.

Guru Tegh Bahadur

Date of Birth : 1 April 1621
Father : Hari Gōbind
Mother : Mata Nanki
Guruship on : 20 March 1665
Age at Death : 54,
Major Life Highlights : * Opposed the forced conversions of the Hindu Kashmiri Pandits by Muslims * Was consequently persecuted, imprisoned, tortured and executed under the orders of the Mughal emperor Aurangzeb. Contributed many hymns (Shlokas) to Guru Granth Sahib * Spread Sikhism far and wide to Bihar and Assam *

Guru Gobind Singh

Date of Birth : 22 December 1666
Father : Tēġ Bahādur
Mother : Mata Gujri
Guruship on : 11 November 1675
Age at Death : 41,
Major Life Highlights : * Founded Khalsa in 1699 * Last Sikh Guru in human form * Passed the Guruship of the Sikhs to the Guru Granth Sahib * Died of complications from stab wounds inflicted by Pashtun assassins sent by Mughal governor Wazir Khan

Guru Granth Sahib

Date of Birth : n/a
Father : -
Mother : -
Guruship on : 7 October 1708
Age at Death : n/a,
Major Life Highlights : Final and last, eternal living guru



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