विष्णु सहस्रनाम भगवान विष्णु के हजार नामों से युक्त एक प्रमुख स्तोत्र है। यह हिन्दू धर्म में सबसे पवित्र तथा प्रचलित स्तोत्रों में से एक है। महाभारत में उपलब्ध विष्णु सहस्रनाम इसका सबसे लोकप्रिय संस्करण है। पद्म पुराण व मत्स्य पुराण में इसका एक और संस्करण उपलब्ध है। प्रत्येक नाम विष्णु के अनगिनत गुणों में से कुछ गुणों को सूचित करता है। कई हिंदु परिवारों मे पूजन के समय इसका पठन करते है। इसके सुनने या पठन से मनुष्य की मनोकामनाएँ पूर्ण होने की मान्यता है।
अनुशासनपर्व (महाभारत) के १४९ वें अध्याय के अनुसार, कुरुक्षेत्र मे बाणों की शय्या पर लेटे पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को इसका उपदेश दिया था।
कुरुक्षेत्र युद्ध मे हुई विनाश देख धर्मराज युधिष्ठिर विचलित हुए। बाणों की शय्या पर लेटे भीष्म भी अपने प्राण त्यागने की प्रतीक्षा करते थे। समय उचित पाकर भगवान वेदव्यास और श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को समाकालीन सर्वोच्च ज्ञानी भीष्म से धर्म व नीति के विषय मे उपदेश लेने की प्रेरणा दी। अपने सभी भाई समेत कृष्ण को साथ लिए युधिष्ठिर पितामह भीष्म के पास पहुँच कर उनका नमन किया और धर्म व नीति के विषय मे विचार करते किए प्रश्न व भीष्म का विवरण सहित उत्तर ही यह सहस्रनाम स्तोत्र है।
इस स्तोत्र के तीन प्रमुख भागों को निम्न भागों मे दिया गया है।
पूर्व पीठिका
इसमे सर्वप्रथम गणेश, विष्वक्सेन, वेदव्यास तथा विष्णु का नमन किया जाता है।
इसके बाद युधिष्ठिर के प्रश्न है:
किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम्।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ॥
अर्थ :
सभी लोकों में सर्वोत्तम देवता कौन है?
संसारी जीवन का लक्ष्य क्या है?
किसकी स्तुति व अर्चन से मानव का कल्याण होता है?
सबसे उत्तम धर्म कौनसा है?
किसके नाम जपने से जीव को संसार के बंधन से मुक्ति मिलती है?
इसके उत्तर में भीष्मजी ने कहा,"जगत के प्रभु, देवों के देव, अनंत व पुरूषोत्तम विष्णु के सहस्रनाम के जपने से, अचल भक्ति से, स्तुति से, आराधना से, ध्यान से, नमन से मनुष्य को संसार के बंधन से मुक्ति मिलती है। यही सर्वोत्तम धर्म है।"
इसके बाद ऋषि, देवादि संकल्प तथा परमात्मा का ध्यान किया जाता है।
सहस्रनाम
इस भाग मे विश्वं से आरंभ सर्वप्रहरणायुध तक सभी सहस्र (१०००) नामों को १०७ श्लोकों मे सम्मिलित किया गया है। परमात्मा के आनंत रूप, स्वभाव, गुण व नामों में से सहस्र नामों को इसमें लिया गया है।
उत्तर पीठिका
फलश्रुति
इस भाग मे सहस्रनाम के सुनने अथवा पठन से प्राप्त होने के लाभ का विवरण दिया गया है।
विष्णु के सहस्र नामों की सूची
यह विष्णु के एक हजार नामों की सूची है
- विश्वम् - जो स्वयं ही ब्रह्माण्ड है
- विष्णुः - सर्वत्र विद्यमान
- वषट्कारः - जिसका यज्ञ में आह्वान किया जाता है
- भूतभव्यभवत्प्रभुः - अतीत, वर्तमान और भविष्य के भगवान
- भूतकृत् - सभी प्राणियों के निर्माता
- भूतभृत् - वह जो सभी प्राणियों को पोषण देते हैं
- भावः - वह जो सभी जड़ और चेतन वस्तुओ का रूप धारण करते हैं
- भूतात्मा - सभी प्राणियों की आत्मा
- भूतभावनः - सभी प्राणियों के विकास और जन्म का कारण
- पूतात्मा - वह जो एक अत्यंत शुद्ध सार के साथ है
- परमात्मा - परम आत्मा
- मुक्तानां परमा गतिः - मुक्त आत्माओं द्वारा प्राप्त किया जाने वाला अंतिम लक्ष्य
- अव्ययः - जिसका विनाश नहीं हो सकता
- पुरुषः - वह जो नौ द्वारो वाले नगर में रहता है
- साक्षी - सब कुछ देखनेवाला
- क्षेत्रज्ञः - वह जो शारीर रुपी क्षेत्र को तत्व से जानने वाला है
- अक्षरः - अविनाशी
- योगः - जो समरूपता की अवस्था में स्थित रहता है
- योगविदां नेता - योग की जानकारी रखने वालों का मार्गदर्शक
- प्रधानपुरुषेश्वरः - मूल प्रक्रति का ईश्वर
- नारसिंहवपुः - वह जिसका रूप मनुष्य और सिंह का है
- श्रीमान् - वह जो हमेशा श्री के साथ रहता है
- केशवः - लंबे और सुंदर बालोंवाला, slayer of Keshi and one who is himself the three
- पुरुषोत्तमः - जो पुरुषों में सबसे उत्तम हो, जो सर्वश्रेष्ठ हो
- सर्वः - वो जो सब कुछ है
- शर्वः - वो जो शुभ है
- शिवः - वह जो हमेशा शुद्ध है
- स्थाणुः - आधार, अचल सत्य
- भूतादिः - पांच महान तत्वों का कारण
- निधिरव्ययः - वह निधि जिसका विनाश नहीं हो सकता
- सम्भवः - वह जो अपनी स्वतंत्र इच्छा से उत्पन्न होता है
- भावनः - वह जो अपने भक्तों को सबकुछ देता है
- भर्ता - वह जो पूरे संसार को नियंत्रित करता है
- प्रभवः - पांच महान तत्वों की उत्पत्ती का स्त्रोत
- प्रभुः - सर्वशक्तिमान भगवान
- ईश्वरः - वह जो बिना किसी सहायता के कुछ भी कर सकता है
- स्वयम्भूः - वह जो खुद से प्रकट होता है
- शम्भुः - वह जो शुभ करनेवाला है
- आदित्यः - अदिति का पुत्र, वामन अवतार
- पुष्कराक्षः - वह जिसकी कमल की तरह आंखें है
- महास्वनः - वह जिसकी गर्जन करने वाली आवाज है
- अनादि-निधनः - He without origin or end
- धाता - He who supports all fields of experience
- विधाता - The dispenser of fruits of action
- धातुरुत्तमः - The subtlest atom
- अप्रमेयः - He who cannot be perceived
- हृषीकेशः - The Lord of the senses
- पद्मनाभः - He from whose navel comes the lotus
- अमरप्रभुः - The Lord of the devas
- विश्वकर्मा - The creator of the universe
- मनुः - He who has manifested as the Vedic mantras
- त्वष्टा - He who makes huge things small
- स्तविष्ठः - The supremely gross
- स्थविरो ध्रुवः - The ancient, motionless one
- अग्राह्यः - He who is not perceived sensually
- शाश्वतः - He who always remains the same
- कृष्णः - He whose complexion is dark
- लोहिताक्षः - Red-eyed
- प्रतर्दनः - The Supreme destruction
- प्रभूतस् - Ever-full
- त्रिकाकुब्धाम - The support of the three quarters
- पवित्रम् - He who gives purity to the heart
- मंगलं-परम् - The Supreme auspiciousness
- ईशानः - The controller of the five great elements
- प्राणदः - He who gives life
- प्राणः - He who ever lives
- ज्येष्ठः - Older than all
- श्रेष्ठः - The most glorious
- प्रजापतिः - The Lord of all creatures
- हिरण्यगर्भः - He who dwells in the womb of the world
- भूगर्भः - He who is the womb of the world
- माधवः - Husband of Lakshmi
- मधुसूदनः - Destroyer of the Madhu demon
- ईश्वरः - The controller
- विक्रमः - He who is full of prowess
- धन्वी - He who always has a divine bow
- मेधावी - Supremely intelligent
- विक्रमः - He who stepped (Vaamana)
- क्रमः - All-pervading
- अनुत्तमः - Incomparably great
- दुराधर्षः - He who cannot be attacked successfully
- कृतज्ञः - He who knows all that is
- कृतिः - He who rewards all our actions
- आत्मवान् - The self in all beings
- सुरेशः - The Lord of the demigods
- शरणम् - The refuge
- शर्म - He who is Himself infinite bliss
- विश्वरेताः - The seed of the universe
- प्रजाभवः - He from whom all praja comes
- अहः - He who is the nature of time
- संवत्सरः - He from whom the concept of time comes
- व्यालः - The serpent (vyaalah) to atheists
- प्रत्ययः - He whose nature is knowledge
- सर्वदर्शनः - All-seeing
- अजः - Unborn
- सर्वेश्वरः - Controller of all
- सिद्धः - The most famous
- सिद्धिः - He who gives moksha
- सर्वादिः - The beginning of all
- अच्युतः - Infallible
- वृषाकपिः - He who lifts the world to dharma
- अमेयात्मा - He who manifests in infinite varieties
- सर्वयोगविनिसृतः - He who is free from all attachments
- वसुः - The support of all elements
- वसुमनाः - He whose mind is supremely pure
- सत्यः - The truth
- समात्मा - He who is the same in all
- सम्मितः - He who has been accepted by authorities
- समः - Equal
- अमोघः - Ever useful
- पुण्डरीकाक्षः - He who dwells in the heart
- वृषकर्मा - He whose every act is righteous
- वृषाकृतिः - The form of dharma
- रुद्रः - He who makes all people weep
- बहुशिरः - He who has many heads
- बभ्रुः - He who rules over all the worlds
- विश्वयोनिः - The womb of the universe
- शुचिश्रवाः - He who listens only the good and pure
- अमृतः - Immortal
- शाश्वतः-स्थाणुः - Permanent and immovable
- वरारोहः - The most glorious destination
- महातपः - He of great tapas
- सर्वगः - All-pervading
- सर्वविद्भानुः - All-knowing and effulgent
- विष्वक्सेनः - He against whom no army can stand
- जनार्दनः - He who gives joy to good people
- वेदः - He who is the Vedas
- वेदविद् - The knower of the Vedas
- अव्यंगः - Without imperfections
- वेदांगः - He whose limbs are the Vedas
- वेदविद् - He who contemplates upon the Vedas
- कविः - The seer
- लोकाध्यक्षः - He who presides over all lokas
- सुराध्यक्षः - He who presides over all devas
- धर्माध्यक्षः - He who presides over dharma
- कृताकृतः - All that is created and not created
- चतुरात्मा - The four-fold self
- चतुर्व्यूहः - Vasudeva, Sankarshan etc.
- चतुर्दंष्ट्रः - He who has four canines (Nrsimha)
- चतुर्भुजः - Four-handed
- भ्राजिष्णुः - Self-effulgent consciousness
- भोजनम् - He who is the sense-objects
- भोक्ता - The enjoyer
- सहिष्णुः - He who can suffer patiently
- जगदादिजः - Born at the beginning of the world
- अनघः - Sinless
- विजयः - Victorious
- जेता - Ever-successful
- विश्वयोनिः - He who incarnates because of the world
- पुनर्वसुः - He who lives repeatedly in different bodies
- उपेन्द्रः - The younger brother of Indra (Vamana)
- वामनः - He with a dwarf body
- प्रांशुः - He with a huge body
- अमोघः - He whose acts are for a great purpose
- शुचिः - He who is spotlessly clean
- ऊर्जितः - He who has infinite vitality
- अतीन्द्रः - He who surpasses Indra
- संग्रहः - He who holds everything together
- सर्गः - He who creates the world from Himself
- धृतात्मा - Established in Himself
- नियमः - The appointing authority
- यमः - The administrator
- वेद्यः - That which is to be known
- वैद्यः - The Supreme doctor
- सदायोगी - Always in yoga
- वीरहा - He who destroys the mighty heroes
- माधवः - The Lord of all knowledge
- मधुः - Sweet
- अतीन्द्रियः - Beyond the sense organs
- महामायः - The Supreme Master of all Maya
- महोत्साहः - The great enthusiast
- महाबलः - He who has supreme strength
- महाबुद्धिः - He who has supreme intelligence
- महावीर्यः - The supreme essence
- महाशक्तिः - All-powerful
- महाद्युतिः - Greatly luminous
- अनिर्देश्यवपुः - He whose form is indescribable
- श्रीमान् - He who is always courted by glories
- अमेयात्मा - He whose essence is immeasurable
- महाद्रिधृक् - He who supports the great mountain
- महेष्वासः - He who wields shaarnga
- महीभर्ता - The husband of mother earth
- श्रीनिवासः - The permanent abode of Shree
- सतां गिरः - The goal for all virtuous people
- अनिरुद्धः - He who cannot be obstructed
- सुरानन्दः - He who gives out happiness
- गोविन्दः - The protector of the 'Go' - means Veda not Cow.
- गोविदां पथः - The Lord of all men of wisdom
- मरीचिः - Effulgence
- दमनः - He who controls rakshasas
- हंसः - The swan
- सुपर्णः - Beautiful-winged (Two birds analogy)
- भुजगोत्तमः - The serpent Ananta
- हिरण्यनाभः - He who has a golden navel
- सुतपाः - He who has glorious tapas
- पद्मनाभः - He whose navel is like a lotus
- प्रजापतिः - He from whom all creatures emerge
- अमृत्युः - He who knows no death
- सर्वदृक् - The seer of everything
- सिंहः - He who destroys
- सन्धाता - The regulator
- सन्धिमान् - He who seems to be conditioned
- स्थिरः - Steady
- अजः - He who takes the form of Aja, Brahma
- दुर्मषणः - He who cannot be vanquished
- शास्ता - He who rules over the universe
- विसृतात्मा - He who is called atma in the Vedas
- सुरारिहा - Destroyer of the enemies of the devas
- गुरुः - The teacher
- गुरुतमः - The greatest teacher
- धाम - The goal
- सत्यः - He who is Himself the truth
- सत्यपराक्रमः - Dynamic Truth
- निमिषः - He who has closed eyes in contemplation
- अनिमिषः - He who remains unwinking; ever knowing
- स्रग्वी - He who always wears a garland of undecaying flowers
- वाचस्पतिः-उदारधीः - He who is eloquent in championing the Supreme law of life; He with a large-hearted intelligence
- अग्रणीः - He who guides us to the peak
- ग्रामणीः - He who leads the flock
- श्रीमान् - The possessor of light, effulgence, glory
- न्यायः - Justice
- नेता - The leader
- समीरणः - He who sufficiently administers all movements of all living creatures
- सहस्रमूर्धा - He who has endless heads
- विश्वात्मा - The soul of the universe
- सहस्राक्षः - Thousands of eyes
- सहस्रपात् - Thousand-footed
- आवर्तनः - The unseen dynamism
- निवृत्तात्मा - The soul retreated from matter
- संवृतः - He who is veiled from the jiva
- संप्रमर्दनः - He who persecutes evil men
- अहः संवर्तकः - He who thrills the day and makes it function vigorously
- वह्निः - Fire
- अनिलः - Air
- धरणीधरः - He who supports the earth
- सुप्रसादः - Fully satisfied
- प्रसन्नात्मा - Ever pure and all-blissful self
- विश्वधृक् - Supporter of the world
- विश्वभुक् - He who enjoys all experiences
- विभुः - He who manifests in endless forms
- सत्कर्ता - He who adores good and wise people
- सत्कृतः - He who is adored by all good people
- साधुः - He who lives by the righteous codes
- जह्नुः - Leader of men
- नारायणः - He who resides on the waters
- नरः - The guide
- असंख्येयः - He who has numberless names and forms
- अप्रमेयात्मा - A soul not known through the pramanas
- विशिष्टः - He who transcends all in His glory
- शिष्टकृत् - The law-maker
- शुचिः - He who is pure
- सिद्धार्थः - He who has all arthas
- सिद्धसंकल्पः - He who gets all He wishes for
- सिद्धिदः - The giver of benedictions
- सिद्धिसाधनः - The power behind our sadhana
- वृषाही - Controller of all actions
- वृषभः - He who showers all dharmas
- विष्णुः - Long-striding
- वृषपर्वा - The ladder leading to dharma (As well as dharma itself)
- वृषोदरः - He from whose belly life showers forth
- वर्धनः - The nurturer and nourisher
- वर्धमानः - He who can grow into any dimension
- विविक्तः - Separate
- श्रुतिसागरः - The ocean for all scripture
- सुभुजः - He who has graceful arms
- दुर्धरः - He who cannot be known by great yogis
- वाग्मी - He who is eloquent in speech
- महेन्द्रः - The lord of Indra
- वसुदः - He who gives all wealth
- वसुः - He who is Wealth
- नैकरूपः - He who has unlimited forms
- बृहद्रूपः - Vast, of infinite dimensions
- शिपिविष्टः - The presiding deity of the sun
- प्रकाशनः - He who illuminates
- ओजस्तेजोद्युतिधरः - The possessor of vitality, effulgence and beauty
- प्रकाशात्मा - The effulgent self
- प्रतापनः - Thermal energy; one who heats
- ऋद्धः - Full of prosperity
- स्पष्टाक्षरः - One who is indicated by OM
- मन्त्रः - The nature of the Vedic mantras
- चन्द्रांशुः - The rays of the moon
- भास्करद्युतिः - The effulgence of the sun
- अमृतांशोद्भवः - The moon who gives flavor to vegetables
- भानुः - Self-effulgent
- शशबिन्दुः - The moon who has a rabbit-like spot
- सुरेश्वरः - A person of extreme charity
- औषधम् - Medicine
- जगतः सेतुः - A bridge across the material energy
- सत्यधर्मपराक्रमः - One who champions heroically for truth and righteousness
- भूतभव्यभवन्नाथः - The Lord of past, present and future
- पवनः - The air that fills the universe
- पावनः - He who gives life-sustaining power to air
- अनलः - Fire
- कामहा - He who destroys all desires
- कामकृत् - He who fulfills all desires
- कान्तः - He who is of enchanting form
- कामः - The beloved
- कामप्रदः - He who supplies desired objects
- प्रभुः - The Lord
- युगादिकृत् - The creator of the yugas
- युगावर्तः - The law behind time
- नैकमायः - He whose forms are endless and varied
- महाशनः - He who eats up everything
- अदृश्यः - Imperceptible
- व्यक्तरूपः - He who is perceptible to the yogi
- सहस्राजित् - He who vanquishes thousands
- अनन्तजित् - Ever-victorious
- इष्टः - He who is invoked through Vedic rituals
- विशिष्टः - The noblest and most sacred
- शिष्टेष्टः - The greatest beloved
- शिखण्डी - He who wears a peacock feather
- नहुषः - He who binds all with maya
- वृषः - He who is dharma
- क्रोधहा - He who destroys anger
- क्रोधकृत्कर्ता - He who generates anger against the lower tendency
- विश्वबाहुः - He whose hand is in everything
- महीधरः - The support of the earth
- अच्युतः - He who undergoes no changes
- प्रथितः - He who exists pervading all
- प्राणः - The prana in all living creatures
- प्राणदः - He who gives prana
- वासवानुजः - The brother of Indra
- अपां-निधिः - Treasure of waters (the ocean)
- अधिष्ठानम् - The substratum of the entire universe
- अप्रमत्तः - He who never makes a wrong judgement
- प्रतिष्ठितः - He who has no cause
- स्कन्दः - He whose glory is expressed through Subrahmanya
- स्कन्दधरः - Upholder of withering righteousness
- धूर्यः - Who carries out creation etc. without hitch
- वरदः - He who fulfills boons
- वायुवाहनः - Controller of winds
- वासुदेवः - Dwelling in all creatures although not affected by that condition
- बृहद्भानुः - He who illumines the world with the rays of the sun and moon
- आदिदेवः - The primary source of everything
- पुरन्दरः - Destroyer of cities
- अशोकः - He who has no sorrow
- तारणः - He who enables others to cross
- तारः - He who saves
- शूरः - The valiant
- शौरिः - He who incarnated in the dynasty of Shoora
- जनेश्वरः - The Lord of the people
- अनुकूलः - Well-wisher of everyone
- शतावर्तः - He who takes infinite forms
- पद्मी - He who holds a lotus
- पद्मनिभेक्षणः - Lotus-eyed
- पद्मनाभः - He who has a lotus-navel
- अरविन्दाक्षः - He who has eyes as beautiful as the lotus
- पद्मगर्भः - He who is being meditated upon in the lotus of the heart
- शरीरभृत् - He who sustains all bodies
- महर्द्धिः - One who has great prosperity
- ऋद्धः - He who has expanded Himself as the universe
- वृद्धात्मा - The ancient self
- महाक्षः - The great-eyed
- गरुडध्वजः - One who has Garuda on His flag
- अतुलः - Incomparable
- शरभः - One who dwells and shines forth through the bodies
- भीमः - The terrible
- समयज्ञः - One whose worship is nothing more than keeping an equal vision of the mind by the devotee
- हविर्हरिः - The receiver of all oblation
- सर्वलक्षणलक्षण्यः - Known through all proofs
- लक्ष्मीवान् - The consort of Laksmi
- समितिंजयः - Ever-victorious
- विक्षरः - Imperishable
- रोहितः - The fish incarnation
- मार्गः - The path
- हेतुः - The cause
- दामोदरः - Whose stomach is marked with three lines
- सहः - All-enduring
- महीधरः - The bearer of the earth
- महाभागः - He who gets the greatest share in every Yajna
- वेगवान् - He who is swift
- अमिताशनः - Of endless appetite
- उद्भवः - The originator
- क्षोभणः - The agitator
- देवः - He who revels
- श्रीगर्भः - He in whom are all glories
- परमेश्वरः - Parama + Ishvara = Supreme Lord, Parama (MahaLakshmi i.e. above all the shaktis) + Ishvara (Lord) = Lord of MahaLakshmi
- करणम् - The instrument
- कारणम् - The cause
- कर्ता - The doer
- विकर्ता - Creator of the endless varieties that make up the universe
- गहनः - The unknowable
- गुहः - He who dwells in the cave of the heart
- व्यवसायः - Resolute
- व्यवस्थानः - The substratum
- संस्थानः - The ultimate authority
- स्थानदः - He who confers the right abode
- ध्रुवः - The changeless in the midst of changes
- परर्धिः - He who has supreme manifestations
- परमस्पष्टः - The extremely vivid
- तुष्टः - One who is contented with a very simple offering
- पुष्टः - One who is ever-full
- शुभेक्षणः - All-auspicious gaze
- रामः - One who is most handsome
- विरामः - The abode of perfect-rest
- विरजः - Passionless
- मार्गः - The path
- नेयः - The guide
- नयः - One who leads
- अनयः - One who has no leader
- वीरः - The valiant
- शक्तिमतां श्रेष्ठः - The best among the powerful
- धर्मः - The law of being
- धर्मविदुत्तमः - The highest among men of realisation
- वैकुण्ठः - Lord of supreme abode, Vaikuntha
- पुरुषः - One who dwells in all bodies
- प्राणः - Life
- प्राणदः - Giver of life
- प्रणवः - He who is praised by the gods
- पृथुः - The expanded
- हिरण्यगर्भः - The creator
- शत्रुघ्नः - The destroyer of enemies
- व्याप्तः - The pervader
- वायुः - The air
- अधोक्षजः - One whose vitality never flows downwards
- ऋतुः - The seasons
- सुदर्शनः - He whose meeting is auspicious
- कालः - He who judges and punishes beings
- परमेष्ठी - One who is readily available for experience within the heart
- परिग्रहः - The receiver
- उग्रः - The terrible
- संवत्सरः - The year
- दक्षः - The smart
- विश्रामः - The resting place
- विश्वदक्षिणः - The most skilful and efficient
- विस्तारः - The extension
- स्थावरस्स्थाणुः - The firm and motionless
- प्रमाणम् - The proof
- बीजमव्ययम् - The Immutable Seed
- अर्थः - He who is worshiped by all
- अनर्थः - One to whom there is nothing yet to be fulfilled
- महाकोशः - He who has got around him great sheaths
- महाभोगः - He who is of the nature of enjoyment
- महाधनः - He who is supremely rich
- अनिर्विण्णः - He who has no discontent
- स्थविष्ठः - One who is supremely huge
- अभूः - One who has no birth
- धर्मयूपः - The post to which all dharma is tied
- महामखः - The great sacrificer
- नक्षत्रनेमिः - The nave of the stars
- नक्षत्री - The Lord of the stars (the moon)
- क्षमः - He who is supremely efficient in all undertakings
- क्षामः - He who ever remains without any scarcity
- समीहनः - One whose desires are auspicious
- यज्ञः - One who is of the nature of yajna
- इज्यः - He who is fit to be invoked through yajna
- महेज्यः - One who is to be most worshiped
- क्रतुः - The animal-sacrifice
- सत्रम् - Protector of the good
- सतां गिरः - Refuge of the good
- सर्वदर्शी - All-knower
- विमुक्तात्मा - The ever-liberated self
- सर्वज्ञः - Omniscient
- ज्ञानमुत्तमम् - The Supreme Knowledge
- सुव्रतः - He who ever-perfoeming the pure vow
- सुमुखः - One who has a charming face
- सूक्ष्मः - The subtlest
- सुघोषः - Of auspicious sound
- सुखदः - Giver of happiness
- सुहृत् - Friend of all creatures
- मनोहरः - The stealer of the mind
- जितक्रोधः - One who has conquered anger
- वीरबाहुः - Having mighty arms
- विदारणः - One who splits asunder
- स्वापनः - One who puts people to sleep
- स्ववशः - He who has everything under His control
- व्यापी - All-pervading
- नैकात्मा - Many souled
- नैककर्मकृत् - One who does many actions
- वत्सरः - The abode
- वत्सलः - The supremely affectionate
- वत्सी - The father
- रत्नगर्भः - The jewel-wombed
- धनेश्वरः - The Lord of wealth
- धर्मगुब् - One who protects dharma
- धर्मकृत् - One who acts according to dharma
- धर्मी - The supporter of dharma
- सत् - existence
- असत् - illusion
- क्षरम् - He who appears to perish
- अक्षरम् - Imperishable
- अविज्ञाता - The non-knower (The knower being the conditioned soul within the body)
- सहस्रांशुः - The thousand-rayed
- विधाता - All supporter
- कृतलक्षणः - One who is famous for His qualities
- गभस्तिनेमिः - The hub of the universal wheel
- सत्त्वस्थः - Situated in sattva
- सिंहः - The lion
- भूतमहेश्वरः - The great lord of beings
- आदिदेवः - The first deity
- महादेवः - The great deity
- देवेशः - The Lord of all devas
- देवभृद्गुरुः - Advisor of Indra
- उत्तरः - He who lifts us from the ocean of samsara
- गोपतिः - The shepherd
- गोप्ता - The protector
- ज्ञानगम्यः - One who is experienced through pure knowledge
- पुरातनः - He who was even before time
- शरीरभूतभृत् - One who nourishes the nature from which the bodies came
- भोक्ता - The enjoyer
- कपीन्द्रः - Lord of the monkeys (Rama)
- भूरिदक्षिणः - He who gives away large gifts
- सोमपः - One who takes Soma in the yajnas
- अमृतपः - One who drinks the nectar
- सोमः - One who as the moon nourishes plants
- पुरुजित् - One who has conquered numerous enemies
- पुरुसत्तमः - The greatest of the great
- विनयः - He who humiliates those who are unrighteous
- जयः - The victorious
- सत्यसन्धः - Of truthful resolution
- दाशार्हः - One who was born in the Dasarha race
- सात्त्वतां पतिः - The Lord of the Satvatas
- जीवः - One who functions as the ksetrajna
- विनयितासाक्षी - The witness of modesty
- मुकुन्दः - The giver of liberation
- अमितविक्रमः - Of immeasurable prowess
- अम्भोनिधिः - The substratum of the four types of beings
- अनन्तात्मा - The infinite self
- महोदधिशयः - One who rests on the great ocean
- अन्तकः - The death
- अजः - Unborn
- महार्हः - One who deserves the highest worship
- स्वाभाव्यः - Ever rooted in the nature of His own self
- जितामित्रः - One who has conquered all enemies
- प्रमोदनः - Ever-blissful
- आनन्दः - A mass of pure bliss
- नन्दनः - One who makes others blissful
- नन्दः - Free from all worldly pleasures
- सत्यधर्मा - One who has in Himself all true dharmas
- त्रिविक्रमः - One who took three steps
- महर्षिः कपिलाचार्यः - He who incarnated as Kapila, the great sage
- कृतज्ञः - The knower of the creation
- मेदिनीपतिः - The Lord of the earth
- त्रिपदः - One who has taken three steps
- त्रिदशाध्यक्षः - The Lord of the three states of consciousness
- महाशृंगः - Great-horned (Matsya)
- कृतान्तकृत् - Destroyer of the creation
- महावराहः - The great boar
- गोविन्दः - One who is known through Vedanta
- सुषेणः - He who has a charming army
- कनकांगदी - Wearer of bright-as-gold armlets
- गुह्यः - The mysterious
- गभीरः - The unfathomable
- गहनः - Impenetrable
- गुप्तः - The well-concealed
- चक्रगदाधरः - Bearer of the disc and mace
- वेधाः - Creator of the universe
- स्वांगः - One with well-proportioned limbs
- अजितः - Vanquished by none
- कृष्णः - Dark-complexioned
- दृढः - The firm
- संकर्षणोऽच्युतः - He who absorbs the whole creation into His nature and never falls away from that nature
- वरुणः - One who sets on the horizon (Sun)
- वारुणः - The son of Varuna (Vasistha or Agastya)
- वृक्षः - The tree
- पुष्कराक्षः - Lotus eyed
- महामनः - Great-minded
- भगवान् - One who possesses six opulences
- भगहा - One who destroys the six opulences during pralaya
- आनन्दी - One who gives delight
- वनमाली - One who wears a garland of forest flowers
- हलायुधः - One who has a plough as His weapon
- आदित्यः - Son of Aditi
- ज्योतिरादित्यः - The resplendence of the sun
- सहिष्णुः - One who calmly endures duality
- गतिसत्तमः - The ultimate refuge for all devotees
- सुधन्वा - One who has Shaarnga
- खण्दपरशुः - One who holds an axe
- दारुणः - Merciless towards the unrighteous
- द्रविणप्रदः - One who lavishly gives wealth
- दिवःस्पृक् - Sky-reaching
- सर्वदृग्व्यासः - One who creates many men of wisdom
- वाचस्पतिरयोनिजः - One who is the master of all vidyas and who is unborn through a womb
- त्रिसामा - One who is glorified by Devas, Vratas and Saamans
- सामगः - The singer of the sama songs
- साम - The Sama Veda
- निर्वाणम् - All-bliss
- भेषजम् - Medicine
- भृषक् - Physician
- संन्यासकृत् - Institutor of sannyasa
- समः - Calm
- शान्तः - Peaceful within
- निष्ठा - Abode of all beings
- शान्तिः - One whose very nature is peace
- परायणम् - The way to liberation
- शुभांगः - One who has the most beautiful form
- शान्तिदः - Giver of peace
- स्रष्टा - Creator of all beings
- कुमुदः - He who delights in the earth
- कुवलेशयः - He who reclines in the waters
- गोहितः - One who does welfare for cows
- गोपतिः - Husband of the earth
- गोप्ता - Protector of the universe
- वृषभाक्षः - One whose eyes rain fulfilment of desires
- वृषप्रियः - One who delights in dharma
- अनिवर्ती - One who never retreats
- निवृतात्मा - One who is fully restrained from all sense indulgences
- संक्षेप्ता - The involver
- क्षेमकृत् - Doer of good
- शिवः - Auspiciousness
- श्रीवत्सवत्साः - One who has sreevatsa on His chest
- श्रीवासः - Abode of Sree
- श्रीपतिः - Lord of Laksmi
- श्रीमतां वरः - The best among glorious
- श्रीदः - Giver of opulence
- श्रीशः - The Lord of Sree
- श्रीनिवासः - One who dwells in the good people
- श्रीनिधिः - The treasure of Sree
- श्रीविभावनः - Distributor of Sree
- श्रीधरः - Holder of Sree
- श्रीकरः - One who gives Sree
- श्रेयः - Liberation
- श्रीमान् - Possessor of Sree
- लोकत्रयाश्रयः - Shelter of the three worlds
- स्वक्षः - Beautiful-eyed
- स्वंगः - Beautiful-limbed
- शतानन्दः - Of infinite varieties and joys
- नन्दिः - Infinite bliss
- ज्योतिर्गणेश्वरः - Lord of the luminaries in the cosmos
- विजितात्मा - One who has conquered the sense organs
- विधेयात्मा - One who is ever available for the devotees to command in love
- सत्कीर्तिः - One of pure fame
- छिन्नसंशयः - One whose doubts are ever at rest
- उदीर्णः - The great transcendent
- सर्वतश्चक्षुः - One who has eyes everywhere
- अनीशः - One who has none to Lord over Him
- शाश्वतः-स्थिरः - One who is eternal and stable
- भूशयः - One who rested on the ocean shore (Rama)
- भूषणः - One who adorns the world
- भूतिः - One who is pure existence
- विशोकः - Sorrowless
- शोकनाशनः - Destroyer of sorrows
- अर्चिष्मान् - The effulgent
- अर्चितः - One who is constantly worshipped by His devotees
- कुम्भः - The pot within whom everything is contained
- विशुद्धात्मा - One who has the purest soul
- विशोधनः - The great purifier
- अनिरुद्धः - He who is invincible by any enemy
- अप्रतिरथः - One who has no enemies to threaten Him
- प्रद्युम्नः - Very rich
- अमितविक्रमः - Of immeasurable prowess
- कालनेमीनिहा - Slayer of Kalanemi
- वीरः - The heroic victor
- शौरी - One who always has invincible prowess
- शूरजनेश्वरः - Lord of the valiant
- त्रिलोकात्मा - The self of the three worlds
- त्रिलोकेशः - The Lord of the three worlds
- केशवः - One whose rays illumine the cosmos
- केशिहा - Killer of Kesi
- हरिः - The destroyer
- कामदेवः - The beloved Lord
- कामपालः - The fulfiller of desires
- कामी - One who has fulfilled all His desires
- कान्तः - Of enchanting form
- कृतागमः - The author of the agama scriptures
- अनिर्देश्यवपुः - Of Indescribable form
- विष्णुः - All-pervading
- वीरः - The courageous
- अनन्तः - Endless
- धनंजयः - One who gained wealth through conquest
- ब्रह्मण्यः - Protector of Brahman (anything related to Narayana)
- ब्रह्मकृत् - One who acts in Brahman
- ब्रह्मा - Creator
- ब्रहम - Biggest
- ब्रह्मविवर्धनः - One who increases the Brahman
- ब्रह्मविद् - One who knows Brahman
- ब्राह्मणः - One who has realised Brahman
- ब्रह्मी - One who is with Brahma
- ब्रह्मज्ञः - One who knows the nature of Brahman
- ब्राह्मणप्रियः - Dear to the brahmanas
- महाकर्मः - Of great step
- महाकर्मा - One who performs great deeds
- महातेजा - One of great resplendence
- महोरगः - The great serpent
- महाक्रतुः - The great sacrifice
- महायज्वा - One who performed great yajnas
- महायज्ञः - The great yajna
- महाहविः - The great offering
- स्तव्यः - One who is the object of all praise
- स्तवप्रियः - One who is invoked through prayer
- स्तोत्रम् - The hymn
- स्तुतिः - The act of praise
- स्तोता - One who adores or praises
- रणप्रियः - Lover of battles
- पूर्णः - The complete
- पूरयिता - The fulfiller
- पुण्यः - The truly holy
- पुण्यकीर्तिः - Of Holy fame
- अनामयः - One who has no diseases
- मनोजवः - Swift as the mind
- तीर्थकरः - The teacher of the tirthas
- वसुरेताः - He whose essence is golden
- वसुप्रदः - The free-giver of wealth
- वसुप्रदः - The giver of salvation, the greatest wealth
- वासुदेवः - The son of Vasudeva
- वसुः - The refuge for all
- वसुमना - One who is attentive to everything
- हविः - The oblation
- सद्गतिः - The goal of good people
- सत्कृतिः - One who is full of Good actions
- सत्ता - One without a second
- सद्भूतिः - One who has rich glories
- सत्परायणः - The Supreme goal for the good
- शूरसेनः - One who has heroic and valiant armies
- यदुश्रेष्ठः - The best among the Yadava clan
- सन्निवासः - The abode of the good
- सुयामुनः - One who attended by the people dwelling on the banks of Yamuna
- भूतावासः - The dwelling place of the elements
- वासुदेवः - One who envelops the world with Maya
- सर्वासुनिलयः - The abode of all life energies
- अनलः - One of unlimited wealth, power and glory
- दर्पहा - The destroyer of pride in evil-minded people
- दर्पदः - One who creates pride, or an urge to be the best, among the righteous
- दृप्तः - One who is drunk with Infinite bliss
- दुर्धरः - The object of contemplation
- अथापराजितः - The unvanquished
- विश्वमूर्तिः - Of the form of the entire Universe
- महामूर्तिः - The great form
- दीप्तमूर्तिः - Of resplendent form
- अमूर्तिमान् - Having no form
- अनेकमूर्तिः - Multi-formed
- अव्यक्तः - Unmanifeset
- शतमूर्तिः - Of many forms
- शताननः - Many-faced
- एकः - The one
- नैकः - The many
- सवः - The nature of the sacrifice
- कः - One who is of the nature of bliss
- किम् - What (the one to be inquired into)
- यत् - Which
- तत् - That
- पदमनुत्तमम् - The unequalled state of perfection
- लोकबन्धुः - Friend of the world
- लोकनाथः - Lord of the world
- माधवः - Born in the family of Madhu
- भक्तवत्सलः - One who loves His devotees
- सुवर्णवर्णः - Golden-coloured
- हेमांगः - One who has limbs of gold
- वरांगः - With beautiful limbs
- चन्दनांगदी - One who has attractive armlets
- वीरहा - Destroyer of valiant heroes
- विषमः - Unequalled
- शून्यः - The void
- घृताशी - One who has no need for good wishes
- अचलः - Non-moving
- चलः - Moving
- अमानी - Without false vanity
- मानदः - One who causes, by His maya, false identification with the body
- मान्यः - One who is to be honoured
- लोकस्वामी - Lord of the universe
- त्रिलोकधरक् - One who is the support of all the three worlds
- सुमेधा - One who has pure intelligence
- मेधजः - Born out of sacrifices
- धन्यः - Fortunate
- सत्यमेधः - One whose intelligence never fails
- धराधरः - The sole support of the earth
- तेजोवृषः - One who showers radiance
- द्युतिधरः - One who bears an effulgent form
- सर्वशस्त्रभृतां वरः - The best among those who wield weapons
- प्रग्रहः - Receiver of worship
- निग्रहः - The killer
- व्यग्रः - One who is ever engaged in fulfilling the devotee's desires
- नैकशृंगः - One who has many horns
- गदाग्रजः - One who is invoked through mantra
- चतुर्मूर्तिः - Four-formed
- चतुर्बाहुः - Four-handed
- चतुर्व्यूहः - One who expresses Himself as the dynamic centre in the four vyoohas
- चतुर्गतिः - The ultimate goal of all four varnas and asramas
- चतुरात्मा - Clear-minded
- चतुर्भावः - The source of the four
- चतुर्वेदविद् - Knower of all four vedas
- एकपात् - One-footed (BG 10.42)
- समावर्तः - The efficient turner
- निवृत्तात्मा - One whose mind is turned away from sense indulgence
- दुर्जयः - The invincible
- दुरतिक्रमः - One who is difficult to be disobeyed
- दुर्लभः - One who can be obtained with great efforts
- दुर्गमः - One who is realised with great effort
- दुर्गः - Not easy to storm into
- दुरावासः - Not easy to lodge
- दुरारिहा - Slayer of the asuras
- शुभांगः - One with enchanting limbs
- लोकसारंगः - One who understands the universe
- सुतन्तुः - Beautifully expanded
- तन्तुवर्धनः - One who sustains the continuity of the drive for the family
- इन्द्रकर्मा - One who always performs gloriously auspicious actions
- महाकर्मा - One who accomplishes great acts
- कृतकर्मा - One who has fulfilled his acts
- कृतागमः - Author of the Vedas
- उद्भवः - The ultimate source
- सुन्दरः - Of unrivalled beauty
- सुन्दः - Of great mercy
- रत्ननाभः - Of beautiful navel
- सुलोचनः - One who has the most enchanting eyes
- अर्कः - One who is in the form of the sun
- वाजसनः - The giver of food
- शृंगी - The horned one
- जयन्तः - The conqueror of all enemies
- सर्वविज्जयी - One who is at once omniscient and victorious
- सुवर्णबिन्दुः - With limbs radiant like gold
- अक्षोभ्यः - One who is ever unruffled
- सर्ववागीश्वरेश्वरः - Lord of the Lord of speech
- महाहृदः - One who is like a great refreshing swimming pool
- महागर्तः - The great chasm
- महाभूतः - The great being
- महानिधिः - The great abode
- कुमुदः - One who gladdens the earth
- कुन्दरः - The one who lifted the earth
- कुन्दः - One who is as attractive as Kunda flowers
- पर्जन्यः - He who is similar to rain-bearing clouds
- पावनः - One who ever purifies
- अनिलः - One who never slips
- अमृतांशः - One whose desires are never fruitless
- अमृतवपुः - He whose form is immortal
- सर्वज्ञः - Omniscient
- सर्वतोमुखः - One who has His face turned everywhere
- सुलभः - One who is readily available
- सुव्रतः - One who has taken the most auspicious forms
- सिद्धः - One who is perfection
- शत्रुजित् - One who is ever victorious over His hosts of enemies
- शत्रुतापनः - The scorcher of enemies
- न्यग्रोधः - The one who veils Himself with Maya
- उदुम्बरः - Nourishment of all living creatures
- अश्वत्थः - Tree of life
- चाणूरान्ध्रनिषूदनः - The slayer of Canura
- सहस्रार्चिः - He who has thousands of rays
- सप्तजिह्वः - He who expresses himself as the seven tongues of fire (Types of agni)
- सप्तैधाः - The seven effulgences in the flames
- सप्तवाहनः - One who has a vehicle of seven horses (sun)
- अमूर्तिः - Formless
- अनघः - Sinless
- अचिन्त्यः - Inconceivable
- भयकृत् - Giver of fear
- भयनाशनः - Destroyer of fear
- अणुः - The subtlest
- बृहत् - The greatest
- कृशः - Delicate, lean
- स्थूलः - One who is the fattest
- गुणभृत् - One who supports
- निर्गुणः - Without any properties
- महान् - The mighty
- अधृतः - Without support
- स्वधृतः - Self-supported
- स्वास्यः - One who has an effulgent face
- प्राग्वंशः - One who has the most ancient ancestry
- वंशवर्धनः - He who multiplies His family of descendents
- भारभृत् - One who carries the load of the universe
- कथितः - One who is glorified in all scriptures
- योगी - One who can be realised through yoga
- योगीशः - The king of yogis
- सर्वकामदः - One who fulfils all desires of true devotees
- आश्रमः - Haven
- श्रमणः - One who persecutes the worldly people
- क्षामः - One who destroys everything
- सुपर्णः - The golden leaf (Vedas) BG 15.1
- वायुवाहनः - The mover of the winds
- धनुर्धरः - The wielder of the bow
- धनुर्वेदः - One who declared the science of archery
- दण्डः - One who punishes the wicked
- दमयिता - The controller
- दमः - Beautitude in the self
- अपराजितः - One who cannot be defeated
- सर्वसहः - One who carries the entire Universe
- अनियन्ता - One who has no controller
- नियमः - One who is not under anyone's laws
- अयमः - One who knows no death
- सत्त्ववान् - One who is full of exploits and courage
- सात्त्विकः - One who is full of sattvic qualities
- सत्यः - Truth
- सत्यधर्मपराक्रमः - One who is the very abode of truth and dharma
- अभिप्रायः - One who is faced by all seekers marching to the infinite
- प्रियार्हः - One who deserves all our love
- अर्हः - One who deserves to be worshiped
- प्रियकृत् - One who is ever-obliging in fulfilling our wishes
- प्रीतिवर्धनः - One who increases joy in the devotee's heart
- विहायसगतिः - One who travels in space
- ज्योतिः - Self-effulgent
- सुरुचिः - Whose desire manifests as the universe
- हुतभुक् - One who enjoys all that is offered in yajna
- विभुः - All-pervading
- रविः - One who dries up everything
- विरोचनः - One who shines in different forms
- सूर्यः - The one source from where everything is born
- सविता - The one who brings forth the Universe from Himself
- रविलोचनः - One whose eye is the sun
- अनन्तः - Endless
- हुतभुक् - One who accepts oblations
- भोक्ता - One who enjoys
- सुखदः - Giver of bliss to those who are liberated
- नैकजः - One who is born many times
- अग्रजः - The first-born
- अनिर्विण्णः - One who feels no disappointment
- सदामर्षी - One who forgives the trespasses of His devotees
- लोकाधिष्ठानम् - The substratum of the universe
- अद्भुतः - Wonderful
- सनात् - The beginningless and endless factor
- सनातनतमः - The most ancient
- कपिलः - The great sage Kapila
- कपिः - One who drinks water
- अव्ययः - The one in whom the universe merges
- स्वस्तिदः - Giver of Svasti
- स्वस्तिकृत् - One who robs all auspiciousness
- स्वस्ति - One who is the source of all auspiciouness
- स्वस्तिभुक् - One who constantly enjoys auspiciousness
- स्वस्तिदक्षिणः - Distributor of auspiciousness
- अरौद्रः - One who has no negative emotions or urges
- कुण्डली - One who wears shark earrings
- चक्री - Holder of the chakra
- विक्रमी - The most daring
- ऊर्जितशासनः - One who commands with His hand
- शब्दगतिः - One who transcends all words
- शब्दसहः - One who allows Himself to be invoked by Vedic declarations
- शिशिरः - The cold season, winter
- शर्वरीकरः - Creator of darkness
- अक्रूरः - Never cruel
- पेशलः - One who is supremely soft
- दक्षः - Prompt
- दक्षिणः - The most liberal
- क्षमिणांवरः - One who has the greatest amount of patience with sinners
- विद्वत्तमः - One who has the greatest wisdom
- वीतभयः - One with no fear
- पुण्यश्रवणकीर्तनः - The hearing of whose glory causes holiness to grow
- उत्तारणः - One who lifts us out of the ocean of change
- दुष्कृतिहा - Destroyer of bad actions
- पुण्यः - Supremely pure
- दुःस्वप्ननाशनः - One who destroys all bad dreams
- वीरहा - One who ends the passage from womb to womb
- रक्षणः - Protector of the universe
- सन्तः - One who is expressed through saintly men
- जीवनः - The life spark in all creatures
- पर्यवस्थितः - One who dwells everywhere
- अनन्तरूपः - One of infinite forms
- अनन्तश्रीः - Full of infinite glories
- जितमन्युः - One who has no anger
- भयापहः - One who destroys all fears
- चतुरश्रः - One who deals squarely
- गभीरात्मा - Too deep to be fathomed
- विदिशः - One who is unique in His giving
- व्यादिशः - One who is unique in His commanding power
- दिशः - One who advises and gives knowledge
- अनादिः - One who is the first cause
- भूर्भूवः - The substratum of the earth
- लक्ष्मीः - The glory of the universe
- सुवीरः - One who moves through various ways
- रुचिरांगदः - One who wears resplendent shoulder caps
- जननः - He who delivers all living creatures
- जनजन्मादिः - The cause of the birth of all creatures
- भीमः - Terrible form
- भीमपराक्रमः - One whose prowess is fearful to His enemies
- आधारनिलयः - The fundamental sustainer
- अधाता - Above whom there is no other to command
- पुष्पहासः - He who shines like an opening flower
- प्रजागरः - Ever-awakened
- ऊर्ध्वगः - One who is on top of everything
- सत्पथाचारः - One who walks the path of truth
- प्राणदः - Giver of life
- प्रणवः - Omkara
- पणः - The supreme universal manager
- प्रमाणम् - He whose form is the Vedas
- प्राणनिलयः - He in whom all prana is established
- प्राणभृत् - He who rules over all pranas
- प्राणजीवनः - He who maintains the life-breath in all living creatures
- तत्त्वम् - The reality
- तत्त्वविद् - One who has realised the reality
- एकात्मा - The one self
- जन्ममृत्युजरातिगः - One who knows no birth, death or old age in Himself
- भूर्भुवःस्वस्तरुः - The tree of the three worlds (bhoo=terrestrial, svah=celestial and bhuvah=the world in between)
- तारः - One who helps all to cross over
- सविताः - The father of all
- प्रपितामहः - The father of the father of beings (Brahma)
- यज्ञः - One whose very nature is yajna
- यज्ञपतिः - The Lord of all yajnas
- यज्वा - The one who performs yajna
- यज्ञांगः - One whose limbs are the things employed in yajna
- यज्ञवाहनः - One who fulfils yajnas in complete
- यज्ञभृद् - The ruler of the yajanas
- यज्ञकृत् - One who performs yajna
- यज्ञी - Enjoyer of yajnas
- यज्ञभुक् - Receiver of all that is offered
- यज्ञसाधनः - One who fulfils all yajnas
- यज्ञान्तकृत् - One who performs the concluding act of the yajna
- यज्ञगुह्यम् - The person to be realised by yajna
- अन्नम् - One who is food
- अन्नादः - One who eats the food
- आत्मयोनिः - The uncaused cause
- स्वयंजातः - Self-born
- वैखानः - The one who cut through the earth
- सामगायनः - One who sings the sama songs; one who loves hearing saama chants;
- देवकीनन्दनः - Son of Devaki
- स्रष्टा - Creator
- क्षितीशः - The Lord of the earth
- पापनाशनः - Destroyer of sin
- शंखभृत् - One who has the divine Pancajanya
- नन्दकी - One who holds the Nandaka sword
- चक्री - Carrier of Sudarsana
- शार्ंगधन्वा - One who aims His shaarnga bow
- गदाधरः - Carrier of Kaumodaki club
- रथांगपाणिः - One who has the wheel of a chariot as His weapon; One with the strings of the chariot in his hands;
- अक्षोभ्यः - One who cannot be annoyed by anyone
- सर्वप्रहरणायुधः - He who has all implements for all kinds of assault and fight
Sources https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81_%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE
विष्णु सहस्रनाम
शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ॥ १॥
यस्य द्विरदवक्त्राद्याः पारिषद्याः परः शतम् ।
विघ्नं निघ्नन्ति सततं विष्वक्सेनं तमाश्रये ॥ २॥
व्यासं वसिष्ठनप्तारं शक्तेः पौत्रमकल्मषम् ।
पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम् ॥ ३॥
व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे ।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः ॥ ४॥
अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने ।
सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे ॥ ५॥
यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात् ।
विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ ६॥
ॐ नमो विष्णवे प्रभविष्णवे ।
श्रीवैशम्पायन उवाच ---
श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः ।
युधिष्ठिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत ॥ ७॥
युधिष्ठिर उवाच ---
किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम् ।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ॥ ८॥
को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः ।
किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् ॥ ९॥
भीष्म उवाच ---
जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम् ।
स्तुवन् नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः ॥ १०॥
तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम् ।
ध्यायन् स्तुवन् नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च ॥ ११॥
अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम् ।
लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् ॥ १२॥
ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम् ।
लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भवम् ॥ १३॥
एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः ।
यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा ॥ १४॥
परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः ।
परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणम् ॥ १५॥
पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम् ।
दैवतं दैवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता ॥ १६॥
यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे ।
यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये ॥ १७॥
तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते ।
विष्णोर्नामसहस्रं मे शृणु पापभयापहम् ॥ १८॥
यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः ।
ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये ॥ १९॥
ऋषिर्नाम्नां सहस्रस्य वेदव्यासो महामुनिः ॥
छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो भगवान् देवकीसुतः ॥ २०॥
अमृतांशूद्भवो बीजं शक्तिर्देवकिनन्दनः ।
त्रिसामा हृदयं तस्य शान्त्यर्थे विनियोज्यते ॥ २१॥
विष्णुं जिष्णुं महाविष्णुं प्रभविष्णुं महेश्वरम् ॥
अनेकरूप दैत्यान्तं नमामि पुरुषोत्तमं ॥ २२ ॥
पूर्वन्यासः ।
श्रीवेदव्यास उवाच ---
ॐ अस्य श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रमहामन्त्रस्य ।
श्री वेदव्यासो भगवान् ऋषिः ।
अनुष्टुप् छन्दः ।
श्रीमहाविष्णुः परमात्मा श्रीमन्नारायणो देवता ।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजम् ।
देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तिः ।
उद्भवः क्षोभणो देव इति परमो मन्त्रः ।
शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकम् ।
शार्ङ्गधन्वा गदाधर इत्यस्त्रम् ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति नेत्रम् ।
त्रिसामा सामगः सामेति कवचम् ।
आनन्दं परब्रह्मेति योनिः ।
ऋतुः सुदर्शनः काल इति दिग्बन्धः ॥
श्रीविश्वरूप इति ध्यानम् ।
श्रीमहाविष्णुप्रीत्यर्थे सहस्रनामस्तोत्रपाठे विनियोगः ॥
अथ न्यासः ।
ॐ शिरसि वेदव्यासऋषये नमः ।
मुखे अनुष्टुप्छन्दसे नमः ।
हृदि श्रीकृष्णपरमात्मदेवतायै नमः ।
गुह्ये अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजाय नमः ।
पादयोर्देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तये नमः ।
सर्वाङ्गे शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकाय नमः ।
करसम्पूटे मम श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः ॥
इति ऋषयादिन्यासः ॥
अथ करन्यासः ।
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कार इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति तर्जनीभ्यां नमः ।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मेति मध्यमाभ्यां नमः ।
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्य इत्यनामिकाभ्यां नमः ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वीति कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
इति करन्यासः ।
अथ षडङ्गन्यासः ।
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कार इति हृदयाय नमः ।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति शिरसे स्वाहा ।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मेति शिखायै वषट् ।
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्य इति कवचाय हुम् ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वीति नेत्रत्रयाय वौषट् ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इत्यस्त्राय फट् ।
इति षडङ्गन्यासः ॥
श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे विष्णोर्दिव्यसहस्रनामजपमहं
करिष्ये इति सङ्कल्पः ।
अथ ध्यानम् ।
क्षीरोदन्वत्प्रदेशे शुचिमणिविलसत्सैकतेर्मौक्तिकानां
मालाकॢप्तासनस्थः स्फटिकमणिनिभैर्मौक्तिकैर्मण्डिताङ्गः ।
शुभ्रैरभ्रैरदभ्रैरुपरिविरचितैर्मुक्तपीयूष वर्षैः
आनन्दी नः पुनीयादरिनलिनगदा शङ्खपाणिर्मुकुन्दः ॥ १॥
भूः पादौ यस्य नाभिर्वियदसुरनिलश्चन्द्र सूर्यौ च नेत्रे
कर्णावाशाः शिरो द्यौर्मुखमपि दहनो यस्य वास्तेयमब्धिः ।
अन्तःस्थं यस्य विश्वं सुरनरखगगोभोगिगन्धर्वदैत्यैः
चित्रं रंरम्यते तं त्रिभुवन वपुषं विष्णुमीशं नमामि ॥ २॥
ॐ शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं var योगिहृद्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥ ३॥
मेघश्यामं पीतकौशेयवासं
श्रीवत्साङ्कं कौस्तुभोद्भासिताङ्गम् ।
पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्षं
विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाथम् ॥ ४॥
नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते ।
अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ ५॥
सशङ्खचक्रं सकिरीटकुण्डलं
सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् ।
सहारवक्षःस्थलकौस्तुभश्रियं var स्थलशोभिकौस्तुभं
नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम् ॥ ६॥
छायायां पारिजातस्य हेमसिंहासनोपरि
आसीनमम्बुदश्याममायताक्षमलंकृतम् ।
चन्द्राननं चतुर्बाहुं श्रीवत्साङ्कित वक्षसं
रुक्मिणी सत्यभामाभ्यां सहितं कृष्णमाश्रये ॥ ७॥
स्तोत्रम् ।
हरिः ॐ ।
विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः ॥ १॥
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः ।
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ॥ २॥
योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः ।
नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः ॥ ३॥
सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः ।
सम्भवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ॥ ४॥
स्वयम्भूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ॥ ५॥
अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ॥ ६॥
अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ॥ ७॥
ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ॥ ८॥
ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान् ॥ ९॥
सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः ।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ॥ १०॥
अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः ।
वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः ॥ ११॥
वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्माऽसम्मितः समः ।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ॥ १२॥
रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः ।
अमृतः शाश्वतस्थाणुर्वरारोहो महातपाः ॥ १३॥
सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः ।
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कविः ॥ १४॥
लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः ॥ १५॥
भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः ।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ॥ १६॥
उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरूर्जितः ।
अतीन्द्रः सङ्ग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ॥ १७॥
वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः ।
अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ॥ १८॥
महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः ।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक् ॥ १९॥
महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।
अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः ॥ २०॥
मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ॥ २१॥
अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः सन्धाता सन्धिमान् स्थिरः ।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ॥ २२॥
गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः ॥ २३॥
अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान् न्यायो नेता समीरणः ।
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥ २४॥
आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सम्प्रमर्दनः ।
अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः ॥ २५॥
सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः ।
सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः ॥ २६॥
असङ्ख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः ।
सिद्धार्थः सिद्धसङ्कल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ॥ २७॥
वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः ॥ २८॥
सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः ।
नैकरूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ॥ २९॥
ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः ।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः ॥ ३०॥
अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुः सुरेश्वरः ।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः ॥ ३१॥
भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः ।
कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः ॥ ३२॥
युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।
अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित् ॥ ३३॥
इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः ।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः ॥ ३४॥
अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।
अपांनिधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ॥ ३५॥
स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः ॥ ३६॥
अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ॥ ३७॥
पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत् ।
महर्द्धिरृद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः ॥ ३८॥
अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।
सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान् समितिञ्जयः ॥ ३९॥
विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः ।
महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ॥ ४०॥
उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ॥ ४१॥
व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः ।
परर्द्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ॥ ४२॥
रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयोऽनयः । or विरामो विरतो
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः ॥ ४३॥
वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ॥ ४४॥
ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ॥ ४५॥
विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम् ।
अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ॥ ४६॥
अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयूपो महामखः ।
नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ॥ ४७॥
यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् ॥ ४८॥
सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत् ।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ॥ ४९॥
स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत् ।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ॥ ५०॥
धर्मगुब्धर्मकृद्धर्मी सदसत्क्षरमक्षरम् ।
अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः ॥ ५१॥
गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः ॥ ५२॥
उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।
शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ॥ ५३॥
सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः ।
विनयो जयः सत्यसन्धो दाशार्हः सात्वताम्पतिः ॥ ५४॥
जीवो विनयिता साक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः ।
अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोऽन्तकः ॥ ५५॥
अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।
आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ॥ ५६॥
महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत् ॥ ५७॥
महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी ।
गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ॥ ५८॥
वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः सङ्कर्षणोऽच्युतः ।
वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ॥ ५९॥
भगवान् भगहाऽऽनन्दी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः ॥ ६०॥
सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।
दिवस्पृक् सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ॥ ६१॥ var दिविस्पृक्
त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक् ।
संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम् ॥ ६२॥
शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ॥ ६३॥
अनिवर्ती निवृत्तात्मा सङ्क्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतांवरः ॥ ६४॥
श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः ॥ ६५॥
स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः ।
विजितात्माऽविधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ॥ ६६॥
उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ॥ ६७॥
अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः ।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ॥ ६८॥
कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ॥ ६९॥
कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः ।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनञ्जयः ॥ ७०॥
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।
ब्रह्मविद् ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ॥ ७१॥
महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ॥ ७२॥
स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ॥ ७३॥
मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ॥ ७४॥
सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ॥ ७५॥
भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः ।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः ॥ ७६॥
विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान् ।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ॥ ७७॥
एको नैकः सवः कः किं यत् तत्पदमनुत्तमम् ।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ॥ ७८॥
सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः ॥ ७९॥
अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक् ।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ॥ ८०॥
तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकशृङ्गो गदाग्रजः ॥ ८१॥
चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः ।
चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात् ॥ ८२॥
समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ॥ ८३॥
शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः ।
इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ॥ ८४॥
उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः ।
अर्को वाजसनः शृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी ॥ ८५॥
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ॥ ८६॥
कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः ।
अमृताशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ॥ ८७॥
सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।
न्यग्रोधोऽदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः ॥ ८८॥
सहस्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।
अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः ॥ ८९॥
अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ॥ ९०॥
भारभृत् कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥ ९१॥
धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः ।
अपराजितः सर्वसहो नियन्ताऽनियमोऽयमः ॥ ९२॥
सत्त्ववान् सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।
अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत् प्रीतिवर्धनः ॥ ९३॥
विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग्विभुः ।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ॥ ९४॥
अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ॥ ९५॥
सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः ।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः ॥ ९६॥
अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ॥ ९७॥
अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणांवरः ।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ॥ ९८॥
उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः ।
वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः ॥ ९९॥
अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः ।
चतुरश्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ॥ १००॥
अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः ।
जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ॥ १०१॥
आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः ।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ॥ १०२॥
प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः ।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ॥ १०३॥
भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः ॥ १०४॥
यज्ञभृद् यज्ञकृद् यज्ञी यज्ञभुग् यज्ञसाधनः ।
यज्ञान्तकृद् यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ॥ १०५॥
आत्मयोनिः स्वयञ्जातो वैखानः सामगायनः ।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ॥ १०६॥
शङ्खभृन्नन्दकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ॥ १०७॥
सर्वप्रहरणायुध ॐ नम इति ।
वनमाली गदी शार्ङ्गी शङ्खी चक्री च नन्दकी ।
श्रीमान् नारायणो विष्णुर्वासुदेवोऽभिरक्षतु ॥ १०८॥
श्री वासुदेवोऽभिरक्षतु ॐ नम इति ।
उत्तरन्यासः ।
भीष्म उवाच ---
इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः ।
नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम् ॥ १॥
य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत् ।
नाशुभं प्राप्नुयात्किञ्चित्सोऽमुत्रेह च मानवः ॥ २॥
वेदान्तगो ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत् ।
वैश्यो धनसमृद्धः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात् ॥ ३॥
धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात् ।
कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी प्राप्नुयात्प्रजाम् ॥ ४॥
भक्तिमान् यः सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः ।
सहस्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत् ॥ ५॥
यशः प्राप्नोति विपुलं ज्ञातिप्राधान्यमेव च ।
अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम् ॥ ६॥
न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति ।
भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरूपगुणान्वितः ॥ ७॥
रोगार्तो मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।
भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ॥ ८॥
दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम् ।
स्तुवन्नामसहस्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः ॥ ९॥
वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायणः ।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ॥ १०॥
न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते ॥ ११॥
इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।
युज्येतात्मसुखक्षान्तिश्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः ॥ १२॥
न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः ।
भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे ॥ १३॥
द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः ।
वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः ॥ १४॥
ससुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम् ।
जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम् ॥ १५॥
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्त्वं तेजो बलं धृतिः ।
वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च ॥ १६॥
सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्प्यते । var?? कल्पते
आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ॥ १७॥
ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः ।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम् ॥ १८॥
योगो ज्ञानं तथा साङ्ख्यं विद्याः शिल्पादि कर्म च ।
वेदाः शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात् ॥ १९॥
एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः ।
त्रींल्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः ॥ २०॥
इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम् ।
पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च ॥ २१॥
विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभुमव्ययम् ।
भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम् ॥ २२॥
न ते यान्ति पराभवम् ॐ नम इति ।
अर्जुन उवाच ---
पद्मपत्रविशालाक्ष पद्मनाभ सुरोत्तम ।
भक्तानामनुरक्तानां त्राता भव जनार्दन ॥ २३॥
श्रीभगवानुवाच ---
यो मां नामसहस्रेण स्तोतुमिच्छति पाण्डव ।
सोहऽमेकेन श्लोकेन स्तुत एव न संशयः ॥ २४॥
स्तुत एव न संशय ॐ नम इति ।
व्यास उवाच ---
वासनाद्वासुदेवस्य वासितं भुवनत्रयम् ।
सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥ २५॥
श्री वासुदेव नमोऽस्तुत ॐ नम इति ।
पार्वत्युवाच ---
केनोपायेन लघुना विष्णोर्नामसहस्रकम् ।
पठ्यते पण्डितैर्नित्यं श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो ॥ २६॥
ईश्वर उवाच ---
श्रीराम राम रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ॥ २७॥
श्रीरामनाम वरानन ॐ नम इति ।
ब्रह्मोवाच ---
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये
सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे ।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते
सहस्रकोटियुगधारिणे नमः ॥ २८॥
सहस्रकोटियुगधारिणे ॐ नम इति ।
ॐ तत्सदिति श्रीमहाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यामानुशासनिके
पर्वणि भीष्मयुधिष्ठिरसंवादे श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रम् ॥
सञ्जय उवाच ---
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ २९॥
श्रीभगवानुवाच ---
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ३०॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ३१॥
आर्ताः विषण्णाः शिथिलाश्च भीताः घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः ।
सङ्कीर्त्य नारायणशब्दमात्रं विमुक्तदुःखाः सुखिनो भवन्ति ॥ ३२॥ var भवन्तु
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात् । var प्रकृतिस्वभावात् ।
करोमि यद्यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि ॥ ३३॥
इति श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
ॐ तत् सत्
Sources https://timesofindia.indiatimes.com/religion/mantras-chants/recite-vishnu-sahasranamam-stotram-for-a-peaceful-and-wealthy-life/articleshow/75275199.cms
Download विष्णु सहस्रनाम in PDF (Sanskrit)
Listen विष्णु सहस्रनाम on Youtube visit https://www.youtube.com/watch?v=zKC17254flc
0 Comments