Berger Paints Price List 2021
Berger Paints XP Customer Executives and Service Partners are equipped with ‘XP Health & Safety Kit’ comprising masks, gloves, caps, digital thermometer, hand sanitizer & disinfectant which will be used during the painting process to ensure safety and hygiene.
Nerolac Paints Price List 2021
Kansai Nerolac Paints Limited (formerly known as Goodlass Nerolac Paints Ltd) is the largest industrial paint and third-largest decorative paint company in India based in Mumbai. It is a subsidiary of Kansai Paint of Japan. As of 2015, it has the third-largest market share with 15.4% in the Indian paint industry.
It is engaged in the industrial, automotive, and powder coating business. It develops and supplies paint systems used on the finishing lines of electrical components, cycle, material handling equipment, bus bodies, containers, and furniture industries.
Asain Paints Price List 2021
The best interior paint is tractor emulation. This is the product of Asian Paints. It has maximum coverage compare to many other products in the market. It is washable paint.
Blue, green, yellow, beige, and tan are the best colours for the living room. However, Vastu suggests putting a combination of red colour, though not too much, in the living room. The whole space will become lively beaming with fresh energy.
Latex paint is the most common and preferred paint type to use because of its ease of clean-up and long-lasting durability. It also tends to be more fade resistant and breathes better than oil, resulting in less blistering of the paint.
Shiv Mahimna Stotram | शिवमहिम्न स्तोत्र in Sanskrit
शिवमहिम्न स्तोत्र (संस्कृत: श्रीशिवमहिम्नस्तोत्रम्) शिव महिम्न का अभिप्राय शिव की महिमा से है। यह एक अत्यंत ही मनोहर शिव स्तोत्र है। शिवभक्त श्री गंधर्वराज पुष्पदंत द्वारा अगाध प्रेमभाव से ओतप्रोत यह शिवस्तोत्र भगवान शिव को बहुत प्रिय है।
महिम्नस्तोत्र में कहा गया है– स्तोत्रेण किल्बिषहरेण हरप्रियेण। हर अर्थात् शिव तभी तो शिव तथा विष्णु दोनो एक साथ हो तो हरिहर कहलाते हैं। इस पंक्ति का अर्थ है कि हर प्रकार के पापों को समन करने वाला यह स्तोत्र भगवान शिव को अतिप्रिय है। यह स्तोत्र साक्षात् शिवस्वरूप है तथा शिवभक्तों के मध्य अत्यंत प्रचलित हैं।
इस स्तोत्र के निर्माण पर एक अत्यंत ही रोचक कथा प्रचलित है। एक समय की बात है जब चित्ररथ नामक शिवभक्त राजा हुए जिन्होंने अपने राज्य में कई प्रकार के पुष्पों का एक उद्यान बनवाया, वह शिवपूजन के लिये पुष्प वहीं से ले जाते थे। महान् शिवभक्त गंधर्व पुष्पदंत देवराज इंद्र की सभा के मुख्य गायक थे, एक दिन उनकी नजर उस सुंदर उद्यान पर पड़ी और वह मंत्रमुग्ध हो गए, उन्होंने उसी उद्यान से पुष्प तोड़े तथा प्रस्थान किया। मायावी गंधर्व पर किसी की नजर नहीं पड़ी पर जब राजा को इसका पता चला तो उसने चोर को पकड़ने के कई असफल प्रयास किए। राजा को एक तरकीब सूझी उसने शिव पर अर्पित पुष्प आदि उद्यान के पथ पर बिछा दिया। अगले दिन जब पुष्पदंत वहाँ आए तो उनकी नजर उन शिव निर्माल्य वस्तुओं पर नहीं पड़ी जिससे उनके पद ही उनपर पड़ गए। गंधर्वराज को शिव के क्रोध का भाजन करना पड़ा तथा उनकी सारी शक्तियाँ समाप्त हो गईं। जब उनको अपनी भूल का आभास हुआ तब उन्होंने एक शिवलिंग का निर्माण कर उसकी पूजा की तथा प्रार्थना के लिये कुछ छंद बोले, शिव प्रसन्न हुए, उनकी शक्तियाँ लौटा दी तथा यह आशीर्वाद दिया कि उनके द्वारा उच्चारित छंद समूह भविष्य में शिवमहिम्नस्तोत्र के नाम से प्रचलित होगा तथा उनके हृदय में स्थान प्राप्त करेगा और पुष्पदंत द्वारा बनाया गया शिवलिंग पुष्पदंतेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध होगा जिसके दर्शन मात्र से पाप कटेगा।
इस प्रकार शिवमहिम्न स्तोत्र की रचना हुई।
Download the Shiv Mahimna Stotra | शिवमहिम्न स्तोत्र PDF using the link given below.
https://shaivam.org/hindi/shi-shiva-mahimna-stotra-trans.pdf
Apamarjan Stotram | अपामार्जन स्तोत्र in Sanskrit
अपामार्जन स्तोत्र भगवान् विष्णु का स्तोत्र है जिसका प्रयोग विषरोगादि के निवारण के लिए किया जाता है। इस स्तोत्र के नित्य गायन या पाठन से सभी प्रकार के रोग शरीर से दूर रहते हैं, तथा इसका प्रयोग रोगी व्यक्ति के मार्जन द्वारा रोग निराकरण में किया जाता है। इस स्तोत्र का उल्लेख भारतीय धर्मग्रन्थों में दो बार प्राप्त हुआ है।
अपामार्जन स्तोत्र से समस्त प्रकार के रोग जैसे- नेत्ररोग, शिरोरोग, उदररोग, श्वासरोग, कम्पन, नासिकारोग, पादरोग, कुष्ठरोग, क्षयरोग, भंगदर, अतिसार, मुखरोग, पथरी, वात, कफ, पित्त, समस्त प्रकार के ज्वर तथा अन्य महाभयंकर रोग इस विचित्र स्तोत्र के पाठ करने से समाप्त हो जाते है। परकृत्या, भूत-प्रेत-वेताल-डाकिनी-शाकिनी तथा शत्रुपीड़ा, ग्रहपीड़ा , भय, शोक दुःखादि बन्धनों से साधक को मुक्ति मिलती है।
विष्णुधर्मोत्तरपुराण में पठित अपामार्जन स्तोत्र
श्रीमान्वेंकटनाथार्यः कवितार्किककेसरी।
वेदान्ताचार्यवर्यो मे सन्निधत्तां सदाहृदि॥
शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये॥
श्रीदाल्भ्य उवाच –
भगवन् प्राणिनः सर्वे विषरोगाद्युपद्रवैः।
दुष्टग्रहाभिघातैश्च सर्वकालमुपद्रुताः॥०१॥
आभिचारिककृत्याभिः स्पर्थरोगैश्च दारुणैः।
सदा संपीड्यमानस्तु तिष्ठन्ति मुनिसत्तम्॥०२॥
केन कर्मविपाकेन विषरोगाद्युपद्रवाः।
न भवन्ति नृणां तन्मे यथावद्वक्तुमर्हसि॥०३॥
श्री पुलत्स्य उवाच –
वृतोपवासैर्यैविष्णुर्नान्यजन्मनि तोषितः।
ते नरा मुनिशार्दूल विषरोगादिभागिनः॥०४॥
यैर्न तत्प्रवणं चित्तं सर्वदैव नरैः कृतम्।
विषज्वरग्रहाणां ते मनुष्याः दाल्भ्य भागिनः॥०५॥
आरोग्यं परमरुधिं मनसा यध्य धिच्छधि।
थाधन्पोथ्य संधिग्धं परथरा अच्युथ थोष कृतः॥ ०६॥
नाधीन प्रप्नोथि न व्याधीन विष ग्रहं न इभन्धनं।
कृत्य स्परस भयं व अपि थोषिथे मधुसूदने॥ ०७॥
सर्व दुख समास्थास्य सोउम्य स्थस्य सदा ग्रहा।
देवानामपि थुस्थ्यै स थुष्टो यस्य जनार्धन॥ ०८॥
य समा सर्व भूथेषु यदा आत्मनि थधा परे।
उपवाधि धानेन थोषिथे मधुसुधने॥ ०९॥
थोशकस्थ जयन्थे नरा पूर्ण मनोरधा।
अरोगा सुखिनो भोगान भोक्थारो मुनि सथाम॥ १०॥
न थेशां शत्रवो नैव स्परस रोघाधि भागिन।
ग्रह रोगधिकं वापि पाप कार्यं न जयथे॥ ११॥
अव्यःअथानि कृष्णस्य चक्रधीन आयुधानि च।
रक्षन्थि सकला आपद्भ्यो येन विष्णुर उपसिथ॥ १२॥
श्री धलभ्ह्य उवाच –
अनारधिथ गोविन्द, ये नरा दुख बगिन।
थेशां दुख अभि भूथानां यत् कर्थव्यं धयलुभि॥ १३॥
पस्यब्धि सर्व भूथस्थं वासुदेवं महा मुने।
समा दृष्टि बी रीसेसं थन मम ब्रूह्य सेशत्र्ह॥ १४॥
पुलस्थ्य उवाच –
स्रोथु कामो असि वै धल्भ्य स्रुनुश्व सुसमहिथ
अपारम जनकं वक्ष्ये न्यास पूर्वं इधं परम्।
प्रणवं फ नमो हग्वथे वासुदेवाय – सर्व क्लेसप हन्थ्रे नाम॥ १५॥
अध ध्यानं प्रवक्ष्यामि सर्व पाप प्रनासनम्।
वराह रूपिणं देवं संस्मरन अर्चयेतः जपेतः॥ १६॥
जलोउघ धाम्ना स चराचर धरा विषाण कोट्य अखिल विस्व रूपिण।
समुद्ध्रुथा येन वराह रूपिणा स मय स्वयम्भुर् भग्वन् प्रसीदथु॥ १७॥
चंचत चन्ध्रर्ध दंष्ट्रं स्फुरद उरु राधानां विध्युतः ध्योथ जिह्वम्
गर्जत पर्जन्य नाधम स्फुर्थार विरुचिं चक्षुर क्षुध्र रोउध्रम्।
थ्रस्थ साह स्थिथि यूढं ज्वलद् अनल सता केसरोदः बस मानं
रक्षो रक्थाभिषिक्थं प्रहराथि दुरिथं ध्ययथां नरसिंहं॥ १८॥
अथि विपुल सुगथ्रं रुक्म पथ्रस्त्हस मननं
स ललिथ धधि खण्डं, पाणिना दक्षिणेन।
कलस ममृथ पूर्णं वमःअस्थे दधानं
थारथि सकल दुखं वामने भवयेतः य॥ १९॥
विष्णुं भास्वतः किरीदंग दवल यगला कल्पज्ज्वलन्गम्
श्रेणी भूषा सुवक्षो मणि मकुट महा कुण्डलैर मन्दिथांगम्।
हस्थ्ध्यस्चंग चकरंभुजगध ममलं पीठ कोउसेयमासा
विध्योथातः भास मुध्यद्धिना कर सदृशं पद्म संस्थं नमामि॥ २०॥
कल्पन्थर्क प्रकाशं त्रिभुवन मखिलं थेजसा पूरयन्थं
रक्थाक्षं पिंग केसम रिपुकुल दमनं भीम दंष्ट्र अत्तःअसम्।
शंकां चरं, गदब्जं प्रधु थर मुसलं सूल पसन्गुसग्नीन
भिब्रनं धोर्भिरध्यं मनसी मुर रिपुं भवाय चक्र संज्ञां॥ २१॥
प्रणवं नाम, परमार्थाय पुरुषाय महात्मने।
अरूप बहु रूपाय व्यापिने पर्मथ्मने॥ २२॥
निष्कल्माशाय, शुध्य, ध्यान योग रथ्य च।
नमस्कृथ्य प्रवक्ष्यामि यत्र सिधयथु मय वच॥ २३॥
नारायणाय शुध्य विस्वेसेस्वरय च।
अच्य्य्थनन्द गोविन्द, पद्मनाभाय सोउरुधे॥ २४॥
हृस्जिकेसया कूर्माय माधवाय अच्युथाय च।
दामोदराय देवाय अनन्थय महात्मने॥ २५॥
प्रध्य्मुनाय निरुध्य पुरुशोथाम थेय नाम।
य़ोगीस्वरय गुह्याय गूदाय परमथ्मने॥ २६॥
भक्था प्रियाय देवाय विश्वक्सेनय सर्न्गिने।
अदोक्षजय दक्षाय मथ्स्यय मधुःअर्रिने॥ २७॥
वराहाय नृसिंहाय वामनाय महात्मने।
वराहेस, नृसिम्हेस, वमनेस, त्रिविक्रम॥ २८॥
हयग्रीवेस सर्वेस हृषिकेस हरा अशुभम्।
अपरजिथ चक्रध्यै चतुर्भि परमद्भुत्है॥ २९॥
अखन्दिथ्नुभवै सर्व दुष्ट हारो भव।
हरा अमुकस्य दुरिथं दुष्क्रुथं दुरुपोषिथं॥ ३०॥
मृत्यु बन्धर्थि भय धाम अरिष्टस्य च यतः फलम्।
अरमध्वन सहिथं प्रयुक्थं चा अभिचरिकं॥ ३१॥
घर स्परस महा रोगान प्रयुक्थान थ्वरत हर।
प्राणं फ नमो वासुदेवाय नाम कृष्णाय सरन्गिने॥ ३२॥
नाम पुष्कर नेथ्राय केसवयधि चक्रिणे।
नाम कमल किंजल्क पीठ निर्मल वाससे॥ ३३॥
महा हवरिपुस्थाकन्ध गृष्ट चक्राय चक्रिणे।
दंष्ट्रोग्रेण क्षिथिध्रुथे त्रयी मुर्थ्य माथे नाम॥ ३४॥
महा यज्ञ वराहाय सेष भोगो उपसयिने।
थाप्थ हतक केसन्थ ज्वलथ् पावक लोचन॥ ३५॥
वज्रयुधा नख स्परस दिव्य सिंह नमोस्थुथे।
कस्यप्पय अथि ह्रुस्वय रिक यजु समा मुर्थय॥ ३६॥
थुभ्यं वामन रूपाय क्रमाथे गां नमो नाम।
वराह सेष दुष्टानि सर्व पाप फलानि वै॥ ३७॥
मर्ध मर्ध महा दंष्ट्र मर्ध मर्ध च ततः फलम्।
नरसिंह करालस्य दन्थ प्रोज्ज्वलानन॥ ३८॥
भन्ज्ह भन्ज्ह निनधेन दुष्तान्यस्या आर्थि नरसन।
रग यजुर समा रूपाभि वाग्भि वामन रूप दृक्॥ ३९॥
प्रसमं सर्व दुष्टानां नयथ्वस्य जनार्धन।
कोउभेरं थेय मुखं रथ्रौ सोउम्यं मुखान दिव॥ ४०॥
ज्ंवरथ् मृत्यु भयं घोरं विषं नासयथे ज्वरम्।
त्रिपद भस्म प्रहरण त्रिसिर रक्था लोचन॥ ४१॥
स मय प्रीथ सुखं दध्यातः सर्वमय पथि ज्वर
आध्यन्थवन्थ कवय पुराना सं मर्गवन्थो ह्यनुसासिथरा।
सर्व ज्वरान् ज्ञान्थु मंमनिरुधा प्रध्युम्न, संकर्षण वासुदेव॥ ४२॥
ईय्कहिकम्, ध्व्यहिकम् च तधा त्रि दिवस ज्वरम्।
चथुर्थिकं तधा अथ्युग्रं सथाथ ज्वरम्॥ ४३॥
दोशोथं, संनिपथोथं थादिव आगन्थुकं ज्वरम्।
शमं नया असु गोविन्द छिन्धि चिन्धिस्य वेदनां॥ ४४॥
नेत्र दुखं, शिरो दुखं, दुखं चोधर संभवम्।
अथि स्वसम् अनुच्वसम् परिथापं सवे पधुं॥ ४५॥
गूढ ग्रनंग्रि रोगंस्च, कुक्षि रोगं तधा क्षयम्।
कामालधीं स्थाधा रोगान प्रेमेहास्चथि धरुणं॥ ४६॥
भगन्धरथि सारंस्च मुख रोगमवल्गुलिम्।
अस्मरिं मूथ्र कृच्रं च रोगं अन्यस्च धरुणं॥ ४७॥
ये वथ प्रभावा रोगा, ये च पिथ समुध्भव।
कप्होत भवास्च ये रोगा ये चान्य्ये संनिपथिक॥ ४८॥
आगन्थुकस्च येअ रोगा लूथाधि स्फतकोध्य।
सर्वे थेय प्रसमं यान्थु वासुदेव अपमर्जणतः॥ ४९॥
विलयं यन्थु थेय सर्वे विष्णोर उचरणेन च।
क्षयं गचन्थु चा सेशस्च क्रोनभिःअथा हरे॥ ५०॥
अच्युथनन्थ गोविन्द विष्णोर नारायनंरुथ।
रोगान मय नास्य असेषान आसु धन्वथारे, हरे॥ ५१॥
अच्युथनन्थ गोविन्द नमोचरण भेषजतः,
नस्यन्थि सकला रोगा सत्यं सत्यं वदंयं॥ ५२॥
सत्यं, सत्यं, पुन सत्यं, मुधथ्य भुज मुच्यथे,
वेदातः सस्थ्रं परम् नास्थि न दैवं केस्वतः परम्॥ ५३॥
स्थावरं, जंगमं चापि क्र्थिरिमं चापि यद विषं,
दन्थोदः भवं नखोध्भूथ मकस प्रभवं विषं॥ ५४॥
लूथाधि स्फोतकं चैव विषं अथ्यथ दुस्सहं,
शमं नयथु ततः सर्वं कीर्थिथोस्य जनार्धन॥ ५५॥
ग्रहान प्रेथ ग्रहान चैव थाध्हा वैनयिक ग्रहान,
वेतलंस्च पिसचंस्च ग़न्धर्वन् यक्ष राक्षसान॥ ५६॥
शाकिनी पूथनाध्यंस्च तधा वैनयिक ग्रहान,
मुख मन्दलिकान क्रूरान रेवथीन वृध रेवथीन॥ ५७॥
वृस्चिखखां ग्रहं उग्रान थधा मथ्रु गणान अपि,
बलस्य विष्णोर चार्थं हन्थु बल ग्रहानिमान॥ ५८॥
वृधानां ये ग्रहा केचित् येअ च बल ग्रहं क्वचिथ्,
नरसिंहस्य थेय द्रुश्त्व दग्धा येअ चापि योउवने॥ ५९॥
सता करल वदनो णरसिन्हो महाराव,
ग्रहान असेषान निसेषान करोथु जगथो हिथ॥ ६०॥
नरसिंह महासिंह ज्वला मलो ज्वललन,
ग्रहान असेषन निस्सेषान खाध खाध अग्नि लोचन॥ ६१॥
य़ेअ रोगा, य़ेअ महोथ्पदा, यद्विषम ये महोरगा,
यानि च क्रूर भूथानि ग्रहं पीदस्च धरुणा॥ ६२॥
सस्थ्र क्षाथे च येअ दोष ज्वाला कर्धम कादय,
यानि चान्यानि दुष्टानि प्राणि पीडा कराणि च॥ ६३॥
थानी सर्वाणि सर्वथमन परमथ्मन जनार्धन,
किन्चितः रूपं समास्थाय वासुदेवस्य नास्य॥ ६४॥
ख़्शिथ्व सुदर्शनम् चक्रं ज्ंवल मल्थि भीषणं,
सर्व दुष्टो उपसमानं कुरु देव वर अच्युथ॥ ६५॥
सुदर्शन महा चक्र गोविन्धस्य करयुधा,
थीष्ण पावक संगस कोटि सूर्य समा प्रभा॥ ६६॥
त्रिलोक्य कर्थ थ्वम् दुष्ट दृप्थ धनव धारण,
थीष्ण धारा महा वेग छिन्धि छिन्धि महा ज्वरम्॥ ६७॥
छिन्धि पथं च लूथं च छिन्धि घोरं, महद्भयं,
कृमिं दहं च शूलं च विष ज्वलाम् च कर्धमन॥ ६८॥
सर्व दुष्टानि रक्षांसि क्षपया रीविभीषणा,
प्राच्यां प्रधीच्यं दिसि च दक्षिणो उथरयो स्थाधा॥ ६९॥
रक्ष्जां करोथु भगवन् बहु रूपी जनार्धन,
परमाथम यध विष्णु वेदन्थेश्व अभिधीयथे॥ ७०॥
थेन सत्येन सकलं दुष्तमस्य प्रसंयथु,
यध विष्णु जगत्सर्वं स देवासुरा मानुषं॥ ७१॥
थेन सत्येन सकलं दुष्तमस्य प्रसंयथु,
यध विश्नौ स्मृथे साध्या संक्षयं यन्थि पठका॥ ७२॥
थेन सत्येन सकलं दुष्तमस्य प्रसंयथु,
यध यग्नेस्वरो विष्णुर वेधन्थेस्वबिधीयथे॥ ७३॥
थेन सत्येन सकलं यन मयोक्थं थादस्थु ततः,
शथिरस्थु शिवं चास्त्हुःरिषिकेसया कीर्थणतः॥ ७४॥
वासुदेव सरेरोत्है कुसि समर्जिथं मया,
अपमर्जथु गोविन्दो नरो नारायनस्त्धा॥ ७५॥
ममास्थु सर्व दुखनां प्रसमो याचनधरे,
संथ समास्थ रोगस्थे ग्रहा सर्व विषाणि च॥ ७६॥
भूथानि सर्व प्रसंयन्थु संस्मृथे मधु सूदने,
येथातः समास्थ रोगेषु भूथ ग्रहं भयेष च॥ ७७॥
अपमर्जनकं शस्त्रं विष्णु नामभि मन्थ्रिथं,
येथे कुसा विष्णु सरीर संभवा जनर्धनोऽहं स्वयमेव चागथ,
हथं मया दुष्ट मसेशमस्य स्वस्थो भवथ्वेषो यधा वाचो हरि॥ ७८॥
शन्थिरस्थु शिवं चास्थु प्रनस्यथ्वसुखं च ततः,
श्र्वस्थ्यमस्थु शिवं चास्थु दुष्तमस्य प्रसंयथु॥ ७९॥
यदस्य दुरिथं किन्चितः ततः क्षिप्थं लवनर्णवे,
श्र्वस्थ्यमस्थु शिवं चास्थु हृषिकेसया कीर्थणतः॥ ८०॥
येथातः रोगधि पीदसु जन्थुनां हिथ मिचथा,
विष्णु भक्थेन कर्थव्व्य्य मप्मर्जनकं परम्॥ ८१॥
अनेन सर्व दुष्टानि प्रसमं यान्थ्य संसय,
सर्व भूथ हिथर्थाय कुर्यतः थास्मतः सदैव हि॥ ८२॥
कुर्यतः थास्मतः सदिव ह्यिं नाम इथि,
यिधं स्तोत्रं परम् पुण्यं सर्व व्याधि विनासनं,
विनास्य च रोगाणां अप मृत्यु जयाय च॥ ८३॥
इधं स्तोत्रं जपेतः संथ कुसि संमर्जयेतः सुचि,
व्याधय अपस्मार कुष्टधि पिसचो राग राक्षस॥ ८४॥
थस्य पर्स्व न गचन्थि स्तोत्रमेथथु य पदेतः,
वराहं, नारसिंहं च वामनं विष्णुमेव च,
समरन जपेदः इधं स्तोत्रं सर्व दुख उपसन्थये॥ ८५॥
इथि विष्णु धर्मोथार पुराने दाल्भ्य पुलस्थ्य संवधे,
अपमर्जन स तोत्रं संपूर्णं॥ ९१॥
पद्मपुराण में पठित अपामार्जन स्तोत्र
महादेव उवाच –
अथातः संप्रवक्ष्यामि अपामार्जनमुत्ततम्।
पुलस्त्येन यथोक्तं तु दालभ्याय महात्मने॥०१॥
सर्वेषां रोगदोषाणां नाशनं मंगलप्रदम्।
तत्तेऽहं तु प्रवक्ष्यामि शृणु त्वं नगनन्दिनि॥०२॥
पार्वत्युवाच –
भगवन्प्राणिनः सर्वे बिषरोगाद्युपद्रवाः।
दुष्टग्रहाभिभूताश्च सर्वकाले ह्युपद्रुताः॥०३॥
अभिचारककृत्यादिबहुरोगैश्च दारुणैः।
न भवन्ति सुरश्रेष्ठ तन्मे त्वं वक्तुमर्हसि॥०४॥
महादेव उवाच –
व्रतोपवासैर्नियमैर्बिष्णुर्वै तोषितस्तु यैः।
ते नरा नैव रोगार्ता जायन्ते नगनन्दिनि॥०५॥
यैः कृतं न व्रतं पुण्यं न दानं न तपस्तथा।
न तीर्थं देवपूजा च नान्नं दत्तं तु भूरिशः॥०६॥
अपामार्जन न्यास
महादेव उवाच –
तद्वक्ष्यामि सुरश्रेष्ठे समाहितमनाः शृणु।
रोगदोषाशुभहरं विद्विडापद्विनाशनम्॥१६॥
शिखायां श्रीधरं न्यस्य शिखाधः श्रीकरं तथा।
हृषीकेशं तु केशेषु मूर्ध्नि नारायणं परम्॥१७॥
ऊर्ध्वश्रोत्रे न्यसेद्विष्णुं ललाटे जलशायिनम्।
बिष्णुं वै भ्रुयुगे न्यस्य भ्रूमध्ये हरिमेव च॥१८॥
नरसिंहं नासिकाग्रे कर्णयोरर्णवेशयम्।
चक्षुषोः पुण्डरीकाक्षं तदधो भूधरं न्यसेत्॥१९॥
कपोलयोः कल्किनाथं वामनं कर्णमूलयोः।
शंखिनं शंखयोर्न्यस्य गोविन्दं वदने तथा॥२०॥
मुकुन्दं दन्तपंक्तौ तु जिह्वायां वाक्पतिं तथा।
रामं हनौ तु विन्यस्य कण्ठे वैकुण्ठमेव च॥२१॥
बलघ्नं बाहुमुलाधश्चांसयोः कंसघातिनम्।
अजं भुजद्वये न्यस्य शार्ंगपाणिं करद्वये॥२२॥
संकर्षणं करांगुष्ठे गोपमंगुलिपंक्तिषु।
वक्षस्यधोक्षजं न्यस्य श्रीवत्सं तस्य मध्यतः॥२३॥
स्तनयोरनिरुद्धं च दामोदरमथोदरे।
पद्मनाभं तथा नाभौ नाभ्यधश्चापि केशवम्॥२४॥
मेढ्रे धराधरं देवं गुदे चैव गदाग्रजम्।
पीताम्बरधरं कट्यामूरुयुग्मे मधुद्विषम्॥२५॥
मुरद्विषं पिण्डकयोर्जानुयुग्मे जनार्दनम्।
फणीशं गुल्फयोर्न्यस्य क्रमयोश्च त्रिविक्रमम्॥२६॥
पादांगुष्ठे श्रीपतिं च पादाधो धरणीधरम्।
रोमकूपेषु सर्वेषु बिष्वक्सेनं न्यसेद्बुधः॥२७॥
मत्स्यं मांसे तु विन्यस्य कूर्मं मेदसि विन्यसेत्।
वाराहं तु वसामध्ये सर्वास्थिषु तथाऽच्युतम्॥२८॥
द्विजप्रियं तु मज्जायां शुक्रे श्वेतपतिं तथा।
सर्वांगे यज्ञपुरुषं परमात्मानमात्मनि॥ २९॥
एवं न्यासविधिं कृत्वा साक्षान्नारायणो भवेत्।
यावन्न व्याहरेत्किंचित्तावद्विष्णुमयः स्थितः॥ ३०॥
गृहीत्वा तु समूलाग्रान्कुशांशुद्धान्समाहितः।
मार्जयेत्सर्वगात्राणि कुशाग्रैरिह शान्तिकृत्॥ ३१॥
बिष्णुभक्तो विशेषेण रोगग्रहबिषार्तिनः(र्दितः)।
बिषार्तानां रोगिणां च कुर्याच्छान्तिमिमां शुभाम्॥ ३२॥
जपेत्तत्र तु भो देवि सर्वरोगप्रणाशनम्।
ॐ नमः श्रीपरमार्थाय पुरुषाय महात्मने॥ ३३॥
अरूपबहुरूपाय व्यापिने परमात्मने।
वाराहं नारसिंहं च वामनं च सुखप्रदम्॥ ३४॥
ध्यात्वा कृत्वा नमो बिष्णोर्नामान्यंगेषु विन्यसेत्।
निष्कल्मषाय शुद्धाय व्याधिपापहराय वै॥ ३५॥
गोविन्दपद्मनाभाय वासुदेवाय भूभृते।
नमस्कृत्वा प्रवक्ष्यामि यत्तत्सिध्यतु मे वच(चः) ॥ ३६॥
त्रिविक्रमाय रामाय वैकुण्ठाय नराय च।
वाराहाय नृसिंहाय वामनाय महात्मने॥ ३७॥
हयग्रीवाय शुभ्राय हृषीकेश हराशुभम्।
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